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________________ १८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं पुरुषाकृति उत्कीर्ण है, जो स्थानीय परम्परानुसार नागौर के नवाब के रूप में पहचानी जाती है । १७७२ ई० के लेख के अनुसार सेबलाकोट नामक स्थान के एक आदमी ने यहाँ कुछ स्थायी दान दिया था । १५१६ ई० के एक अभिलेख से विदित होता है कि - शिवराज के पुत्र हेमराज ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था और सुराणा गोत्र के छाहद के पुत्र संघेश ने नन्दिवर्द्धन सूरि के द्वारा एक प्रतिमा स्थापित करवाई थी । (११) फलोधी तीर्थं : मारवाड़ में फलौधी नाम के दो स्थान हैं । एक पोकरण के निकट और दूसरा विवेच्य जो मेड़ता रोड़ स्टेशन से २ कि० मी० दूर है । अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इसका प्राचीन नाम " फलवधिका " था । संभवतः इसी नाम की देवी के आधार पर फलोधी का नामकरण हुआ होगा । पूर्ववर्ती काल में यहाँ का वर्तमान ब्राह्मण मन्दिर ही " फलवद्धिका " मंदिर था । पार्श्वनाथ की चमत्कारी मूर्ति के प्रभाव के कारण फलोधी, कालक्रम में जैन तीर्थं बन गया । यह राजस्थान के, मध्यकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय तीर्थों में से एक था । इस तीर्थ के सम्बन्ध में स्वतंत्र स्तवन एवं तीर्थ मालाएँ भी समय-समय पर रची गई । भारत के अन्य जैन तीर्थों में इसका भी उल्लेख विनय प्रभा उपाध्याय ने इस स्थान के पार्श्वनाथ मन्दिर का भव्य वर्णन किया है । ४ पूर्व मध्यकाल से ही फलौधी जैनियों का पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता रहा है । 'फलोधी के निकटस्थ द्रोणगिरी पहाड़ी पर ही गुरुदत्त एवं अन्य मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया । " वर्तमान में कुछ विद्वान् द्रोणगिरी को बुन्देलखण्ड में ग्राम सेंधवा के निकट मानते हैं, जो संदिग्ध है, क्योंकि इसके निकट फलोधी नामक कोई स्थान नहीं है, तथा यहाँ उस काल में जैन धर्म के अस्तित्व में होने के भी प्रमाणों का अभाव है । जबकि यह फलौघी १२वीं शताब्दी से ही पार्श्वनाथ का प्रसिद्ध तीर्थ रहा, यही नहीं इसके पूर्व भी यह एक समृद्ध कस्बा था और यहाँ एक महावीर मन्दिर भी था । ६ " विविध तीर्थकल्प" में जिनप्रभसूरि ने किया है । इसी काल के अन्य विद्वान् समय के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ बीच में फलोधी जनविहीन भी हुआ, किन्तु शान्ति काल में पुनः कुछ महाजन यहाँ आकर बस गये । संयोगवश यहाँ से ११२४ ई० १. बीजैलेस, क्र० २६०३ । २. एसिटारा, पृ० ४२६ ॥ ३. जैस, ८, पृ० २७ ॥ ४. जैस, १७, पृ० १५ । ༥་ जैसाऔ, पृ० ४४२-४४३ ॥ ६. एसिटारा, पृ० ४२५ । 19. वितीक, पृ० १०५-१०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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