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________________ जैन तीर्थ : १८९ में एक पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रकट हुई और शीलभद्र सूरि के शिष्य धर्मघोष सूरि ने यहां तीर्थ की स्थापना की । वादिदेव सूरि सपादलक्ष का भ्रमण करते हुए फलौधी आये और उन्होंने ११४७ ई० में इस मन्दिर का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाया।' “विविध तीर्थ कल्प" से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस समारोह में भाग लेने के लिए अजमेर और नागौर के श्रावक भी यहाँ एकत्रित हुये तथा महोत्सव का समस्त व्यय भार धांधल के द्वारा वहन किया गया । "पुरातन प्रबंध संग्रह" में ऐसा उल्लेख है कि धांधल के पारस पत्थर के साथ ही पैदा हुए थे। इन्होंने एक जैन मन्दिर भी बनवाया था। इसके पूर्व ही ११६४ ई० में पोरवाड़ रूपिमणी और भण्डारी दशाढ़ ने पार्श्वनाथ मन्दिर को एक चंडक तथा श्री चित्रकूटीय शिलाफट भेंट में दिया था। एक अन्य तिथि-विहीन अभिलेख के अनुसार, सेठ मुनिचन्द्र ने उत्तान-पट्ट निर्मित करवाया था। किन्तु शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण के समय ११७७ ई० या इसके पूर्व ही मन्दिर का भी विध्वंस हो गया और पार्श्वनाथ प्रतिमा को भी भंग किया गया, किन्तु खंडित मूर्ति ही प्रभावशाली व चमत्कार पूर्ण मानी जाती रही एवं दूसरी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई। मन्दिर के जीर्णोद्धार की आवश्यकता होने के कारण ११७७ ई० में जिनपति सरि ने पार्श्वनाथ की प्रतिमा विधिचैत्य में स्थापित की। खरतर गच्छ का फलौधी से घनिष्ठ सम्पर्क रहा । ११८२ ई० में जिनपति सूरि के यहाँ आगमन पर उनको पद्मप्रभ के श्रावकों का विरोध सहन करना पड़ा। फलौधी से ये शास्त्रार्थ के निमन्त्रण के फलस्वरूप अजमेर गये, जहाँ पृथ्वीराज चौहान के दरबार में इन्होंने पद्मप्रभ को परास्त किया। फलौधी के श्रावकों ने जिनपति सूरि को पुनः आने के लिये बहुत आग्रह किया तथा संघ-पूजा और दानादि पर अपार राशि व्यय की । ११८५ ई० में जिनमतोपाध्याय यहीं देवलोक सिधारे । ११८७ ई० में अभय कुमार के नेतृत्व में एक संघ यात्रा सम्पन्न हुई, जिसमें जिनपति सूरि और यहाँ के श्रावक भी थे। १३२३ ई० में जिन कुशल सूरि के नेतृत्व में फलौधी आये संघ में दिल्ली से सेठ रायपति भी आये थे। इस आगमन पर भव्य स्वागत का आयोजन हुआ था, जिसे देखने आसपास के लोग भी आये थे । १३८० ई० में लिखे हुये "विज्ञप्ति पत्र महालेख" १. जैन तीर्थ सर्व संग्रह। २. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ६० । ३. वही । ४. वितीक पृ० १०६ । ५. खबृगु, पृ० २४ । ६. वही, पृ० ३४। ७. वही, पृ०७२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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