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________________ ४२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म सूची तैयार नहीं हो सकी है। कई विद्वानों ने एतदर्थं अद्यावधि श्रमसाध्य प्रयास किये हैं, जिनमें डॉ० कस्तुरचंद, मुनि पुण्यविजय, अगरचंद नाहटा, भानावत आदि विद्वानों के प्रयास स्तुत्य हैं | राजस्थान में दिगंबर व श्वेतांबर शास्त्र भण्डारों की गणना की जावे तो वह २०० से कम नहीं होनी चाहिए एवं इनमें संग्रहीत ग्रन्थों की संख्या लगभग ३ लाख होनी चाहिये । " ये जैन शास्त्र भण्डार छोटे बड़े सभी स्तर के हैं । कुछ ऐसे ग्रंथ २,००० से भी अधिक पांडुलिपियों का संग्रह मिलता है तो कुछ में हस्तलिखित ग्रंथ हैं । भण्डार हैं जिनमें १०० से भी कम । ग्रन्थ भण्डारों की सूचियों के अवलोकन से स्पष्ट है कि के मध्य सृजित साहित्य की संचित निधि के ये अपूर्व कोष हैं शताब्दी तक ग्रंथों के प्रतिलिपिकरण तथा संग्रह पर अधिक जोर रहा। मुस्लिम काल में प्रतिलिपि की गई पांडुलिपियों की संख्या सर्वाधिक है । ग्रन्थ भण्डारों के लिये इन शताब्दियों को हम उनका स्वर्ण काल कह सकते हैं । आमेर, नागौर, अजमेर, सागवाड़ा, काम, मौजमाबाद, बूँदी, टोडारायसिंह आदि स्थानों के शास्त्र भण्डार इन शताब्दियों में ही स्थापित किये गये और इन्हीं स्थानों पर ग्रंथों का तीव्रता से प्रतिलिपि - करण हुआ । यह युग भट्टारक संस्था का भी स्वर्ण युग था । साहित्य लेखन, उसकी सुरक्षा एवं प्रचार-प्रसार में भट्टारकों का भी अपरिमित योगदान रहा । १८वीं शताब्दी के पश्चात् से यह कार्यं कुछ अवरुद्ध हो गया, यद्यपि जयपुर में साहित्य सृजन व पांडुलिपि प्रतिलिपिकरण अनवरत रहा, किन्तु प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं की कृतियों की सर्वथा उपेक्षा कर दी गई। यही नहीं, ग्रन्थों की सुरक्षा पर भी पूर्ण ध्यान: नहीं दिया गया । महत्त्व एवं विशेषताएँ : १९वीं से १९वीं शताब्दी १५वीं शताब्दी से १८वीं १. मध्ययुगीन बर्बरता एवं विध्वंस से प्राचीन साहित्य की रक्षार्थं, भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित एवं मुस्लिम आक्रमणों के मार्गों से दूर के स्थानों को चुना गया । मरुभूमि में स्थित मुस्लिम आक्रमणकारियों के मार्ग एवं पहुँच से दूर जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डार इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं । Jain Education International २. आक्रमणों के समय हस्तलिखित ग्रन्थ मन्दिरों के भूमिगत कक्षों (भोंयरों) या तहखानों में रखे जाते थे । ऐसे भृगृह कक्ष अनेक मन्दिरों में दृष्टिगत होते हैं । इनके निर्माण से असंख्य ग्रन्थों को बचाया जा सका, किन्तु कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ ग्रन्थों को भूमिगत करने के बाद पुनः देखा ही नहीं गया । नागौर, आमेर, अजमेर, १. राजेशाग्रसू, ५, पृ० २, प्रस्तावना | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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