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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३३
महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। विशेष रूप से खरतरगच्छ का यहाँ अधिक प्रभाव रहा। इस गच्छ के आचार्य बहुधा यहाँ आकर धार्मिक गतिविधियों का संचालन करते रहते थे । ११११ ई० में जिनवल्लभ सूरि विक्रमपुरा आये थे', जिनपति सूरि का ११५३ ई० में यहीं जन्म हुआ था, तदनन्तर ११६० ई० में सन्यासी जीवन में प्रवेश की प्रेरणा तथा ११६६ ई० में वे इसी स्थान पर पट्टधर हुये थे । विक्रमपुर के कतिपय जैन श्रावकों ने जिनपति सूरि से विभिन्न अवसरों पर दीक्षा ली थी तथा ११७५ ई० में इन्होंने "भाण्डागारिक" गुणचन्द्र गणि के स्तूप का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाया था। साथ ही जिनपति सूरि के नेतृत्व में अन्हिलपट्टन से ११८५ ई० में, अभय कुमार के नेतृत्व में निकलने वाले संघ में सम्मिलित होकर तीर्थ यात्राएँ की थीं।
(ब) मध्यकाल:
१२वीं शताब्दी के पश्चात् भी कतिपय चौहान व सोलंकी राजाओं के अन्तर्गत राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में जैन धर्म प्रगतिशील रहा। चाहमान शासक चाचिग देव के शासनकाल में १२४५ ई० में, तेलिया ओसवाल नरपति ने महावीर मन्दिर के भण्डार में ५० द्रम दिये। १२७५ ई० के एक अन्य शिलालेख से ज्ञात होता है कि सामन्त सिंह के राज्यकाल में नरपति ने पार्श्वनाथ मन्दिर में कुछ भेंट अर्पित की थी। चंद्रावती के शासक आल्हणसिंह के शासनकाल में, पार्श्वनाथ मन्दिर को भेंट देने का विवरण १२४३ ई० के अभिलेख में वर्णित है । चन्द्रावती के महाराज बीसलदेव और सारंगदेव के शासनकाल में दत्ताणी के परमार ठाकुर प्रताप व हेमदेव ने पार्श्वनाथ मन्दिर के व्यय के निमित्त, २ खेत १२८८ ई० में दान दिये थे। १२४३ ई० के कलागरा के नष्टप्राय पार्श्वनाथ मन्दिर के लेख में, चन्द्रावती के परमार राजा आल्हण का उल्लेख है । रावल महिपाल देव के पुत्र सुहड़सिंह ने भी इसी मन्दिर को धामिक महोत्सव मनाने के लिये, ४०० द्रम दान में दिये थे। दियाणा से प्राप्त १३३४
१. खबृगु, पृ० १३ । २. वही, पृ० २४ । ३. वही, पृ० ३४। ४. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ५५ । ५. वही। ६. अप्रजैलेस, क्र० ५५ । ७. वही, क्र० ४९० । ८. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग १, खण्ड २, पृ० २५४ ।
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