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३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
ई० के शिलालेख में वर्णित है कि महाराज तेजपाल और उनके मन्त्री कृपा ने एक हौज बनवाकर महावीर मन्दिर को भेंट किया था । १२८७ ई० के किशनगढ़ के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर की पंचतीर्थी के लेख के अनुसार, बाहउग के राज्य में उक्त मूर्ति की प्रतिष्ठा रत्नप्रभ सरि के शिष्य द्वारा सम्पन्न हुई थी।
१३वीं एवं १४वीं शताब्दी में अधिकांश राजपूत राजवंश राजस्थान में सुस्थापित हो गये थे। विभिन्न स्थानों में राजधानियाँ स्थापित कर ३-४ शताब्दी के संवर्ष के उपरान्त, अपनी रियासतें स्थापित कर उन्होंने कुछ स्थिरता प्राप्त की थी। अतः मध्यकाल में विभिन्न आपसी संघर्ष एवं मुस्लिम आक्रमण का सामना करती रहीं । धर्मसहिष्णु राजपूत शासक फिर भी धर्म विमुख नहीं हये । इस काल में जैन धर्म पूर्ववर्ती शताब्दियों की अपेक्षा और अधिक उन्नतिशील हुआ। आन्तरिक साम्प्रदायिक विखण्डन के अनन्तर भी अनेक मन्दिर निर्मित हये, असंख्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई तथा सहस्त्रों ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ व मौलिक ग्रंथ निबद्ध किये गये । राजाओं, राजनयिकों एवं कतिपय मुगल शासकों ने भी जैनाचार्यों को आदर की दृष्टि से देखा । राजपूत शासकों के औदार्य के फलस्वरूप जैन धर्म एवं अहिंसा का प्रभाव अक्षुण्ण बना रहा। ( १ ) मेवाड़ में जैनधर्म :
मेवाड़ क्षेत्र जैन धर्म के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ के शासक इस धर्म के प्रति अत्यधिक उदार थे। चित्तौड़ के निकट निर्मित गंभीरी नदी के पुल में लगे विभिन्न मंदिरों के अवशेषों के मध्य लगे हुये, १२६८ ई० के लेख में वर्णित है कि चैत्र गच्छ के आचार्य रत्नप्रभ सूरि के उपदेश से तेजसिंह के प्रधान, राजपुत्र कांगा के पुत्र ने किसी भवन का निर्माण करवाया था। चीरवा गाँव से प्राप्त १२७३ ई० के शिलालेख में, गुहिलवंशीय शासन परम्परा के अतिरिक्त तत्कालीन चैत्र गच्छ के आचार्यों-भद्रेश्वर सूरि, देवभद्र सूरि, सिद्धसेन सूरि, जिनेश्वर सूरि, विजयसिंह सूरि और भुवनसिंह सूरि का भी उल्लेख है। ये आचार्य धर्म और विद्या के क्षेत्र में लब्ध-प्रतिष्ठ थे। भुवनसिंह सूरि के शिष्य रत्नप्रभ सूरि ने चित्तौड़ में इस शिलालेख को रचना की और उनके मुख्य शिष्य पावचन्द्र ने इसे लिपिबद्ध किया । जिन प्रबोध सूरि चित्तौड़ के महारावल क्षेत्रसिह के समकालीन
१. खबृगु, पृ० १३ । २. जैइरा, पृ० २६ । ३. प्रलेस, क्र० १५ । ४. ओझा-उदयपुर राज्य, १, पृ० ३७० । ५. वही, पृ० १७३-१७५ । ६. राइस्त्रो, पृ० १११ ।
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