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________________ ३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं अवशेषों का निरीक्षण करने पर यह विदित होता है कि ८वीं से ११वीं शताब्दी के य अवशेष विभिन्न जैन एवं हिन्दू मंदिरों के हैं । विलास से २५ मील पूर्व में, शाहबाद नामक प्राचीन कस्बे से ५ मील दूर तालाब के निकट भी हिन्दू व जैन मंदिरों के खण्डहर हैं । बून्दी जिले में नवाँ का संघियों का मन्दिर ११वीं शताब्दी का है । इसमें १०५२ ई० का लेख अंकित है । यहीं के बघेरवाल मन्दिर में शांतिनाथ की ११४५ ई० की मूर्ति है, जिसकी प्रतिष्ठा धरकट जाति के महीद पुत्र जाल्हा ने आचार्य सगरसेन के द्वारा करवाई थी । इसी मन्दिर में १०८८ ई०, ११५२ ई० और ११७१ ई० की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ भी विद्यमान हैं । संघियों के मन्दिर में १०९० ई० की अनन्तनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है । नैनवां के शमशान के पास ९ निषेधिकाएँ हैं, जिनमें से कतिपय ११वीं व १२वीं शताब्दी की भी हैं । झालरापाटन में शांतिनाथ जैन मन्दिर १०४६ ई० में शाहपीपा द्वारा निर्मित करवाया गया था, जिसकी प्रतिष्ठा भावदेव सूरि ने की थी । उक्त सभी तथ्यों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह क्षेत्र जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । यह क्षेत्र दक्षिण में मालवा से उत्तर-पश्चिम व उत्तर के व्यापारिक मार्ग में स्थित होने के कारण हमेशा आवागमन का केन्द्र रहा, अतः धर्म प्रसार भी इसी क्षेत्र से प्रारम्भ होकर उत्तर की ओर सम्भव हुआ तथा उत्तर से आने वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों के दक्षिण- गमन के मार्ग में होने के कारण अत्यधिक विध्वंस का क्षेत्र भी रहा है । (९) माड क्षेत्र में जैन धर्म : भाटी राजपूतों के द्वारा जैसलमेर नगर की स्थापना से पूर्वं भी, यह प्रदेश जैन धर्मं का महत्वपूर्ण केन्द्र था । रेगिस्तान के हृदय में अवस्थित व मुस्लिम आक्रमणों से सुरक्षित, इस क्षेत्र की प्राचीन राजधानी "लुद्रवा " थी । लगभग ९९४ ई० में राजा सागर के राज्यकाल में खरतरगच्छ के वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि लुद्रवा आये थे । उनके उपदेशों से प्रभावित होकर, सागर के श्रीधर एवं राजघर नामक दो पुत्रों ने श्रावक बनना स्वीकार किया था एवं लुद्रवा में 'चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर' का निर्माण करवाया था, इसी मन्दिर का नवीनीकरण १६१८ ई० में श्रेष्ठी थारूशाह के द्वारा करावाया गया" । उस समय इस क्षेत्र का विक्रमपुरा (बिकमपुरा) भी जैन धर्म का एक पृ० ५३ । १. कासलीवाल - केशोरायपाटन, २ . वही । ३. अने, १३, पृ० १२५ । ४. नाजैलेस, ३, सं० २५४३ । ५. वही, क्र० २५४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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