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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३१ थे। यह शहर "पारियात्र" में था और शक्ति नामक राजा के द्वारा शासित था, जो उत्कृष्ट चरित्र एवं सद्ज्ञान का स्वामी था।' इस क्षेत्र के प्राचीन मंदिरों को देखने से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में यह जैन धर्म का बहुत बड़ा केन्द्र था। यह स्थान मूलसंघ के भट्टारकों की पीठ भी रहा ।२ शक्ति कुमार के पितामह भर्तृभट्ट का राज्य दक्षिणपूर्व में प्रतापगढ़ की सीमा तक था। इनका पुत्र अल्लट भी शक्तिशाली शासक था, तत्पश्चात् शक्ति कुमार ने अपने साम्राज्य का और अधिक विस्तार किया। उसके राज्य में सम्भवतः कोटा क्षेत्र का कुछ हिस्सा भी सम्मिलित था। शेरगढ़ के ११३४ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि नरवर्मन के राज्यकाल में नये चैत्य में नेमिनाथ महोत्सव मनाया गया था । शेरगढ़ में ११वीं शताब्दी में एक राजपूत सरदार देवपाल के द्वारा, तीन विशाल जैन प्रतिमाएं स्थापित करवाई गई थीं, जो वर्तमान में एक ध्वस्त मकान में रखी हुई हैं । एक अन्य अभिलेख में वीरसेन और सागरसेन का नामोल्लेख है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह दिगम्बर सम्प्रदाय का भी केन्द्र था। प्रतिमाओं के अभिलेख के अनुसार उस समय इस नगर का नाम "कोषवर्द्धन" था । अटरू तहसील की सीमा पर भीमगढ़ कांकोणी का जैन मंदिर भी पूर्णतः ध्वस्त है। ११७० ई० के एक प्रतिमा लेख में आचार्य वृषभसेन के उपदेशों से, धरकट श्रेष्ठी पासड़ के पुत्र डाल और बिल्ह द्वारा प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख है । बारा क्षेत्र में ही रामगढ़ से तीन मील दूर, ८वीं व ९वीं शताब्दी की जैन गुफाएं हैं। प्राचीन काल में इसका नाम "श्रीनगर" था। यह क्षेत्र सघन वनसम्पदा व पर्वतीय धरातल के माध्यम से एलोरा तुल्य वातावरण का सृजन कर, जैन मुनियों के लिये अनुकूल एकांतिक वातावरण की सृष्टि करता रहा। गुफाओं के निकट ही जैन तीर्थंकरों की कतिपय मूर्तियों एवं मंदिरों के भग्नावशेष हैं। इसी क्षेत्र में अटरू में, १२वीं शताब्दी के दो जैन मन्दिरों के भग्नावशेष हैं। १२वीं शताब्दी में यहाँ सम्भवतः परमार शासकों का शासन था। अटरू से ही १२ मील पूर्व में "कृष्ण विलास" है, जो वर्तमान में "विलास" ही कहलाता है। इस स्थान के खण्डहर और १. पुरातन जैन वाक्य सूची, पृ० ६७ । २. इए, २१, पृ० ५७ । ३. एरिराम्यूअ, १९१६, पृ० २। ४. इए, ३२, पृ० १८६ । ५. एइ, २१, पृ० ८०। ६. एनुरिपो; इए, १९४२-४३, पृ०७० । ७. कोटा राज्य का इतिहास, पृ० २८ । ८. जैरा, पृ० १५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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