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१०० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
२३. चिरापद्रीय गच्छ-इस गच्छ का उल्लेख सिरोही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों से प्राप्त १४१३ ई० से १४७५ ई. तक के ८ मूर्ति लेखों में मिलता है।
२४. धर्मघोष गच्छ-आचार्य धर्मघोष के नाम से यह गच्छ प्रसिद्ध हुआ। राजस्थान के विभिन्न जैन मन्दिरों के १२५२ ई० से १५२० ई. तक के ५३ प्रतिमा लेखों में इस गच्छ का उल्लेख देखने में आता है।
२५. नागेन्द्र गच्छ—यह गच्छ नागेन्द्र कुल से उत्पन्न हुआ। राजस्थान के विविध प्रदेशों में इस गच्छ के उल्लेख वाले २२ मूर्तिलेख १२३८ ई० से १५६० ई० के मध्य के उपलब्ध हुये हैं ।
२६. निगम प्रभावक गच्छ-इस गच्छ का उल्लेख १५२४ ई० के २ अभिलेखों में मिलता है जो सिरोही राज्य की प्रतिमाओं से प्राप्त हुए।४
२७. निवृत्ति कुल या गच्छ-निवृत्ति कुल से निवृत्ति गच्छ उत्पन्न हुआ। इसका उल्लेख १४७२ ई० और १५१० ई० के मूर्तिलेखों में है।"
२८. पिष्पल गच्छ-इस गच्छ के नामोल्लेख वाले ५१ लेख १२३४ ई० से १५०४ ई० के मध्य के सिरोही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक स्थानीय गच्छ था जो सिरोही क्षेत्र में ही विशेष प्रचलन में था।
२९. बृहद गच्छ-पूर्व मध्यकाल में आबू से उत्पन्न यह गच्छ मध्यकाल में राजस्थान में पर्याप्त लोकप्रिय था। इस गच्छ के १२५९ ई० से १५०२ ई० तक के ३९ मूर्ति लेख सिरोही क्षेत्र में देखने को मिलते हैं ।
३०. ब्रह्माण गच्छ-सिरोही राज्य में ब्रह्माण (वरमाण) तीर्थ से पूर्व मध्यकाल में उत्पन्न इस गच्छ का उल्लेख १२८४ ई० से १५११ ई० तक के ४८ प्रतिमा लेखों में भी है।
१. श्री जैप्रलेस, क्र० २०६, २६८, ६५, १४२, २२९, ६१, १६५, १७२ एवं प्रलेस,
परि० २, पृ० २२७ । २. श्री जैप्रलेस, क्र० १९९, २९०, ९८,२६९, १२३, एवं प्रलेस, परि० २, पृ०२२५ । ३. श्री जैप्रलेस, क्र० ५७, ६, १८३, ३६९, २१८, ९६, १९७, ३६५, ३९, २१५,
१२२, २७ एवं प्रलेस क्र० २२, ५८, १५१, १६७, ३६६, ६९६, ८८३, ९३१,
९४६, ९५१ । ४. श्री जैप्रलेस, क्र० ८०, २४१ । ५. प्रलेस, क्र० ७१२, ९३७ । ६. श्री जैप्रलेस, पृ० ४०-५० तक की सूची ।
७. श्री जैप्रलेस, क्र० २९२ अ, २१९,२२ एवं प्रलेस परि० २, पृ० २२६ । ८. श्री जैनलेस, पृ० ५३ एवं ५४ पर सूचीबद्ध; प्रलेस, परि० २, पृ० २२६ ।
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