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३९२: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उपलब्ध हुई हैं-"अष्टाह्निका कथा", "पंचकल्याणक विधाम", "पंचमास चतुर्दशीव्रतोद्यापन", "पुरन्दर व्रतोद्यापन", "लब्धिविधान", "सम्मेदशिखर पूजा", 'प्रताप काव्य", "जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति" पर टीका आदि। इन्होंने कई पूजाएं भी लिखी।
५५. जीवराज-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १७९० ई० में बीकानेर में "मान एकादशी व्याख्यान" की रचना की ।
५६. कर्मचंद्र-ये भी खतरतगच्छीय मनि थे। १७६७ ई० में इन्होंने नागौर में "तर्क संग्रह टीका" की रचना की।
५७. दीपचंद्र-ये भी खरतरगच्छीय थे। इन्होंने १७५५ ई० में जयपुर में "पथ्यापथ्य निर्णय" की रचना की।
५८. लाभवर्धन-ये भी खरतरगच्छीय साधु थे । इन्होंने १७०४ में गुढ़ा में "अंक प्रस्तार" की रचना की।
५९. रायचंद्र-ये भी खरतर गच्छ से सम्बन्धित थे। इन्होंने १७७० ई० नागौर में "अषयादि शकुनावली" रची।
६०. क्यासिंह-ये भी खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे। इन्होंने १७१४ ई० में एक "विज्ञप्तिका" की रचना की ।
६१. सदानंद-इन्होंने १७४९ ई० में "सिद्धान्त चंद्रिका" की सुन्दर आलोचना लिखी।
६२. गुणविजय-इन्होंने "विजय प्रशस्ति" काव्य पर एक पुस्तक की रचना १६३१ ई० में सिरोही में पूर्ण की। (४) राजस्थानीभाषा-साहित्य एवं साहित्यकार :
जैनाचार्यों की लोकभाषा में उपदेश देने की प्रवृति के कारण १७ वी व १८ वीं शताब्दी में भी स्थानीय भाषाओं में विपुल साहित्य सृजित किया गया।
१. राजैसा, पृ० ११५ । २. वही पृ० ७४-८२ । ३. वही। ४. वही।
वही। ६. वही। ७. वही।
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