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जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३९१ ४८. शिवचंद्रोपाध्याय-ये रामविजय के प्रशिष्य थे। इनकी मुख्य कृतियाँ "प्रद्युम्न लीला प्रकाश" १८२२ ई०, “विंशति पद प्रकाश", "समुद्रबंध काव्य" १८०४ ई०, "सिद्ध सप्ततिका", "भावनाप्रकाश" "मूलराज गुण वर्णन" तथा अनेक स्त्रोत्र हैं।'
४९. महोपाध्याय क्षमाकल्याण-(१७४४ ई०-१८१५ ई० ) ये खरतरगच्छीय अमृतधर्म के शिष्य थे । ये उत्तम कोटि के विद्वान थे। इनकी प्राप्त रचनाओं में मुख्य निम्न हैं-"तर्क संग्रह फक्किका" १७१७ ई०, "भूधातुवृत्ति" १७७२ ई०, “समरादित्यकेवली चरित्र" पूर्वार्द्ध, "अंबड चरित्र", "यशोधर चरित्र", "गौतमीय महाकाव्य टीका", "सूक्ति रत्नावली स्वोपज्ञ टीका सह", "विज्ञान चंद्रिका", "खरतरगच्छ पट्टावली", "जीव विचार टीका", परसमय सार विचार संग्रह", "प्रश्नोत्तर सार्द्धशतक", "साधु श्रावक विधि प्रकाश", "अष्टाह्निकादि पूर्वाख्यान", "चैत्यवंदन चतुर्विशति" आदि ग्रन्थ एवं कतिपय स्तोत्र ।
५०. जिनसमुद्रसूरि-ये बेगड़शाखा से सम्बन्धित थे। इन्होंने १८वीं शताब्दी में निम्न रचनाएँ लिखीं-'कल्पांतर वच्चि", "सारस्वत घातुपाठ", व "वैराग्य शतक टीका।
५१. जिनचंद्र सूरि-ये आद्यपक्षीय शाखा से सम्बन्धित थे। इन्होंने १८वीं शताब्दी में "आचारांग सूत्र टीका" रची।
५२. सुमंति हंस-ये भी आद्यपक्षीय शाखा के थे। इन्होंने ''कल्पसूत्र टीका" की रचना की।
५३. भट्टारक देवेन्द्र कीति-ये भट्टारक जगत्कीति के शिष्य थे और १७१३ ई० में आमेर में भट्टारक हये। इन्होंने "समयसार" पर एक संस्कृत टोका ईसरदा में १७३६ ई० में समाप्त की। इनका कार्य क्षेत्र ढूंढाढ़ प्रवेश था। इनकी अन्य रचनाएँ-"व्रतकथा कोष", "चंदनषष्ठि कथा", "प्रद्युम्न प्रबन्ध" आदि हैं ।
५४. भट्टारक सुरेन्द्र कोति-१७६५ ई० या १७६६ ई० में ये जयपुर में भट्टारक बने । ये संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। अभी तक इनकी निम्न रचनाएँ
१. राजैसा, पृ० ७१। २. वही, पृ० ७१। ३. वही, पृ० ७२ । ४. वही। ५. बही। ६. राजैसा, पृ० ११५ ।
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