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२८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
१७वीं शताब्दी से जैन पुस्तक चित्रों में ईरानी तत्त्वों के प्रभाव से तत्कालीन अभिरुचि व नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ परिवर्तन दृष्टिगत होता है । छायाप्रकाश व शारीरिक गठन का अभाव दिखाई देता है। आकृतियाँ सपाट व समतल हो गई, जिनमें लाल, नीले, पीले, चटकदार अविधात्मक रंग भरे जाने लगे। सारे चित्र को विभिन्न तलों में विभक्त कर दिया गया और मनःस्थिति के अनुसार संयोजित कर दिया गया। इस प्रकार को अभिव्यक्ति में आकृतियों में यथार्थ स्वरूप का अतिरंजन या विघटन हो गया, जिनमें अमूर्त चित्र रचना के लक्षण झलकने लगे, जैसे कि ७वीं शताब्दी या ८वीं शताब्दी की आयरिश कला, १२वीं शताब्दी की रोमन कला एवं २०वीं शताब्दी की पिकासो की कला में दिखाई देता है ।' इनकी रेखाएँ स्वतन्त्र, एक-दूसरे को काटती हुई, कोणात्मक तथा वेगवती थीं। जैसे-जैसे कलाकार को तकनीकी अधिकार मिलने लगा, जटिल आकृतियाँ भी एक ही प्रवाह से युक्त अटूट रेखाओं में बनने लगीं। विषय विभिन्नता के साथ ही रेखाओं में भी विविधता व गोलाई आने लगी । कपड़े झीने और पारदर्शक बनाये जाने लगे, जो तरह-तरह के बेलबूटों से सुसज्जित होते थे । अंकन में धैर्य बढ़ने लगा, आकृतियों का स्पेस में उचित स्थान होने लगा तथा वे और भी स्पष्ट होने लगीं। रंगों की श्रेणियाँ बढ़ गईं तथा अब वे अधिक संतुलित तलों में संयोजित होने लगे। जैन लघु शैली की सामान्य विशेषताएं :
(१) पश्चिमी भारत में उत्पन्न जैन चित्र शैली नख, शिख, रंग विधान एवं रेखा सौष्ठव की दृष्टि से राजस्थानी शैली या अन्य किसी भी चित्र शैली से भिन्न है । इसका आलेखन अजंता की बौद्ध शैली के पर्याप्त निकट है । भारतीय चित्रों का इतिहास अजन्ता से प्रारम्भ होकर दूसरा मोड़ इसी शैली के रूप में लेता है । जैन शैली की अपनी मर्यादा, विशेषता, चिन्तन दशा एवं मूल्य हैं। जैन चित्र गुर्जर जाति के नख-शिखसौष्ठव की एक सूची सी हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं, जिसमें ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः शक और हूणों का दल ही विदेशी विजेताओं की गुर्जर सभा थी, जिसका कालान्तर में भारतीयकरण हो गया ।३ गुर्जर जाति पश्चिमी राजस्थान में भी फैली हुई है और राजस्थान में प्राचीन चित्रों जैसे-आभूषण एवं वस्त्र अद्यतन पहने जाते हैं। प्राचीन गुर्जर प्रदेश के राजस्थानी क्षेत्र में, जैन चित्रों में पाई जाने वाली संस्कृति ही परिलक्षित है।
१. इण्डियन पेंटिंग्स, पृ०५-६ । २. चोयल, जैसरा, पृ० २०६ । ३. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० की जैन लघु चित्र शैली, लेख, पृ० ३५-४२।
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