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जैन कला : २८७
है, प्रायः भूमि लाल पकी हुई इंटों के रंग की तथा आकृतियों में पीले, सिन्दूर जैसे लाल, नीले, सफेद तथा किंचित हरे रंग का उपयोग हुआ है, किन्तु १३५० ई० से १४५० ई० तक के ताड़पत्रीय चित्रों में, शास्त्रीय व सौन्दर्य की दृष्टि से वैशिष्ट्य देखा जा सकता है। आकृति अंकन अधिक सूक्ष्मतर व कौशल से हुआ है। यद्यपि, विषय तीर्थंकरों के जीवन की घटनाएँ ही रही हैं, किन्तु उनमें विवरणात्मकता लाने का प्रयास दिखलाई देता है । रंग लेप में वैचित्र्य और विशेष चटकीलापन आया है। इसी काल में सुवर्ण रंग का प्रयोग प्रथम बार दृष्टिगोचर होता है, जो मुसलमानों के साथ आई ईरानी चित्रकला का प्रभाव माना जाता है। जिसके आधार पर १६वीं शताब्दी में भारतीय ईरानी चित्र-शैली विकसित हुई। कुछ रचनाएँ ऐसी भी मिलती हैं, जिनमें न केवल चित्रों में ही स्वर्ण रंग का प्रचुर प्रयोग हुआ है, अपितु समस्त लेखन ही स्वर्णिम-स्याही से किया हुआ है। सचित्र कागज के ग्रन्थों की विशेषताएं :
कागज का आधार मिलने पर चित्रकला की रीति में कुछ विकास और परिवर्तन हुआ । ताड़पत्र में विस्तार की दृष्टि से चित्रकार के हाथ बँधे हुये थे, उसे दो ढाई इंच से चौड़ा क्षेत्र नहीं मिल पाता था। कागज पर रुचि के अनुसार चित्रों के बड़े-छोटे आकार निर्माण व सम्पुचन में सुविधा उत्पन्न हो गई। रंगों के चुनाव में भी विस्तार हुआ । ताड़पत्र पर रंगों को जमाना कठिन कार्य था। सोने-चांदी के रंगों का भी उपयोग प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व स्वर्ण रंग का उपयोग तूलिका को थोड़ा सा डुबोकर केवल आभूषणों के अंकन के लिये किया जाता था। इस काल में सम्भवतः स्वर्ण सुलभ रहा, या धनिकों की रुचि अधिक आकृष्ट होने से न केवल चित्रण में, अपितु लेखन में भी स्वर्ण व रजत स्याहियों का प्रचुरता से प्रयोग होने लगा। कई बार समस्त 'चित्र भूमि स्वर्ण लिप्त कर दी जाने लगी एवं जैन मुनियों के वस्त्र भी स्वर्ण रंगित प्रदर्शित किये जाने लगे।
सूक्ष्म निरीक्षण से ज्ञात होता है कि १६वीं शताब्दी तक इस "लघु चित्रण विधि" में भित्ति चित्रण परम्परा अंश मात्र में विद्यमान थी। रेखाओं का प्रयोग शास्त्रोक्त, स्पष्ट व प्रवाहात्मक है। सिर्फ रंग व ब्रश के संचालन में अन्तर आया है । अजन्ता का चित्र धरातल बड़ा था व उसकी समस्याएं भी भिन्न थीं। इस लघु चित्रों में रेखा खींचते समय व ब्रश को बिल्कुल बालों के पास से पकड़कर हथेली व ऊँगली के बल पर रेखायें खींचनी पड़ती थीं। अतः आकृतियाँ सपाट तलों वाली होती थीं, जिनको बाँधने के लिये लोच की आवश्यकता नहीं थी। एक तरह से यह “लिपि शैली" (केलिग्राफिक) • थी, जिसमें क्षिप्रता व अटूट प्रवाह छुपा था । १. हीरालाल जैन, भारतीय सं० में जैनधर्म का योगदान, पृ० ३६९ । २. चोयल, जैसरा, पृ० २०६ ।
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