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१४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
बच्छावत, दसवाणी, डूंगराणी, मुकीम, साह, रताणी व जैणावत ।
१४७७ ई० में बोथरा गोत्र के थाहा ने जिनचन्द्र सूरि से श्रेयांसनाथ की प्रतिमा की स्थापना सम्पन्न करवाई थी । १४९५ ई० में जिनचन्द्र सूरि ने गहलोत राजपूत गिरधर को प्रतिबोध देकर गेलड़ा गोत्र स्थापित किया । 3 लाखनसिंह चौहान से लोढ़ा गोत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी चार खाँदें – टोडरमलोत, छजमलोत, रतनपालोत और भाव सिन्धो हुई । दुधेरा नामक व्यक्ति से दुधेरिया गोत्र प्रसिद्ध हुआ । जिन कुशल सूरि के उपदेशों से चौहान राजपूत डूंगरसिंह ने जैन मत स्वीकार किया, अतः इनके वंशज डागा गोत्र के हुये 14
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(घ) कुलों से परिवर्तित गोत्र :
कतिपय कुल भी कालक्रम में गोत्रों से सम्बन्धित होकर परिवर्तित हो गये । प्राचीन कश्यप कुल कालान्तर में कश्यपगोत्र हो गया । १४५८ ई० के लेख के अनुसार इस गोत्र के चूडा ने संडेरक गच्छ के ईश्वर सूरि से नेमिनाथ की प्रतिष्ठा करवाई थी । १३वीं शताब्दी में कर्णसिंह के पुत्र श्रवण ने यशोभद्र सूरि से जैन मत स्वीकार किया था । उनके वंशज सीसोदिया गोत्रीय हुये ।
(ङ) विशेष कार्यों के उपरान्त निर्मित गोत्र :
कुछ गोत्र विशिष्ट कार्यों के सम्पन्न होने के कारण अस्तित्व में आये । बरड़िया गोत्र की उत्पत्ति लगभग ११वीं शताब्दी में हुई । एक अनुश्रुति के अनुसार एक नाग व्यन्तर ने नारायण नामक व्यक्ति को वर दिया था । यह " वर दिया" शब्द कालक्रम में " बरडिया " हो गया । १५२७ ई० में इस गोत्र के साह टोडर ने शान्तिनाथ प्रतिमा को प्रतिष्ठा करवाई थी ।" पांसु हीरे जवाहरात का बहुत बड़ा परीक्षक था, अतः उसके वंशज पारख कहलाये ।९ १४६१ ई० में इस गोत्र के सुरपति ने जिनचन्द्र से सुविधिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । ११२० ई० में जिनचन्द्र सूरि ने जोबन
१. जैसंशि, पृ० ६५१ ।
२. नाजैलेस, क्र० १३१७ ।
३. जैसंशि, पृ० ६५१ ॥
४. वही, पृ० ६५३ ।
५. जैइरा, पृ० ९८ । ६. नाजैलेस, क्र० १३१७ ।
७. औजाइ, पृ० ३९३ । ८. नाजैलेस, क्र० ११९२ । ९. जैसंशि, पृ० ६२८ ।
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