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जैनधर्म भेद और उपभेद : १४१ और सच्च को प्रतिबोध दिया और बाफना गोत्र की स्थापना की। जिनके वंशज युद्ध क्षेत्र से नहीं हटते थे, वे नाहटा कहलाये । बाफना गोत्र के लिये यह भी कहा जाता है कि यह "बप्पनाग" के नाम से अस्तित्व में आया।' १३२९ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि इस गोत्र के मोखल ने अपने माता-पिता की स्मृति में कक्क सूरि से सुमतिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। १४३९ ई० में नाहटा गोत्र के मांजण ने नरहद में विमलनाथ के मन्दिर में देवकुलिका निर्मित करवाई थी।
११२४ ई० में सोनगरा चौहान रत्नसिंह के पुत्र धनपाल द्वारा जैन मत स्वीकारने पर रत्नपुरा गोत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी दस शाखाएँ-रत्नपुरा, कोचेटा, नराण, सापद्राह, मलाणिया, सांभरिया, रामसेन्या, बलाई व बोहरा गोत्र हुये। माण्डलगढ़ का सुल्तान, झाँझणसिंह के गुणों से अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसने उन्हें शाही दरबार में कटार रखने के लिये अधिकृत कर दिया, अतः उनके वंशज कटारिया गोत्र के हुये ।" १४२६ ई० में भुवन सुन्दर के उपदेशों से कटारिया गोत्र के संघी तुकादे, पासदे, पुनांसी और मूला ने जीरापल्ली के मन्दिर में देव-कुलिका निर्मित करवाई थी।६ ११५७ ई० में भाटी जोसल सिंह को जिनचन्द्र सूरि ने प्रतिबोध देकर आधरिया गोत्र स्थापित किया। संघवी की उपाधि तीर्थ यात्रा का नेतृत्व करने वालों को दी जाती थी, जिनके वंशज कालान्तर में सिंघवी गोत्र के हुये । काकू नाम के एक व्यक्ति को नगर सेठ की उपाधि दी गई, अतः उसके वंशज सेठिया गोत्र के कहलाने लगे। १०९५ ई० में जिनवल्लभ सूरि नान दे पड़िहार राजा के शासस काल में मण्डोर आये, राजा का पुत्र कूकड़देव कुष्ठ रोग से ग्रस्त था। राजा द्वारा मुनि से पुत्र को ठीक करने की प्रार्थना करने पर, मुनि ने गाय की घी मँगवा कर राजपुत्र के शरीर पर मला, तीन दिन के उपचार से राजपुत्र स्वस्थ हो गया। राजा ने अपने कुटुम्ब के साथ जैन मत स्वीकार कर लिया और सूरिजी ने इस प्रकार कुकड़ा-चोपड़ा गोत्र की स्थापना की। परिहार राजा के मंत्री गणधर ने भी जैन मत स्वीकार कर लिया और इस प्रकार गणधर चोपड़ा
१. भपाइ, पृ० ११०९। २. नाजलेस, क्र० २२५३ । ३. वही, क्र. १९५७ । ४. जैसंशि, पृ० ६३३ । ५. वही, पृ० ६३४ । ६. अप्रजैलेस, क्र० ११३ । ७. जैसंशि, पृ० ६३७ । ८. वही, पृ० ६३४ । ९. ओजाइ, पृ० ४२७ ।
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