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१४२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
गोत्र स्थापित हुआ । १४७९ ई० के एक लेख में कुकड़ा-चोपड़ा गोत्र' और १४३६ ई० के एक लेख में गणधर चोपड़ा गोत्र का उल्लेख है ।२ खरतरसिंह राठौड़ ने जिनदत्त सूरि के प्रतिबोध से जैन मत स्वीकार किया, इनके बड़े पुत्र अम्बदेव ने चोरों का मुकाबला करके उनको पकड़ लिया, कालान्तर में इनके वंशज चोरडिया कहलाये । चोरडियों की १७ शाखाएँ तेजाणी, धन्नाणी, पोपाणी, नोलाणी, गल्लाणी, देवसपाणी, नाणी, श्रवणी, सद्दाणी, कक्कड़, मक्कड़, भक्कड़, लूटक्कण, संसारा, कोबेरा, भटारकिया और पीतलिया हुई । इन्हीं के पौत्र साह सूखा से सावण सूक्खा गोत्र, गेलों से गोलेच्छा, बुच्चों से बुच्चा और पांसुजी से पारख अस्तित्व में आये।४ १११८ ई० में जिनदत्त सूरि के प्रतिबोध से सिंध देश में भाटी अभयसिंह से आयरिया गोत्र तथा इसी वंश के लूणे नामक बुद्धिमान व्यक्ति से लूणावत गोत्र अस्तित्व में आये ।" गच्छ एवं गोत्रों के अन्तर्सम्बन्ध :
प्रतिमाओं के कुछ लेखों से यह ज्ञात होता है कि कतिपय गोत्र विशेष गच्छों से ही सम्बन्धित थे। इन गोत्रों के व्यक्ति प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि निश्चित गच्छ के आचार्यों से ही करवाते थे। आदित्य नाग गोत्र के सभी व्यक्तियों के प्रतिमाओं के प्रष्तिठा समारोह उपकेश गच्छ के आचार्यों द्वारा ही सम्पन्न हुये। इसी प्रकार गधैया गोत्र, बाफना गोत्र, रांवका गोत्र के व्यक्तियों ने उपकेश गच्छ के आचार्यों से ही प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न करवाई। गणधर चोपड़ा, डागा, दोषी एवं लूणियाँ गोत्र के व्यक्ति खरतर गच्छ के आचार्यों से ही प्रतिष्ठा व स्थापना समारोह सम्पम्न करवाते थे । घांग्घा गोत्र और चण्डालिया गोत्र के व्यक्ति मलधारी गच्छ के आचार्यों से प्रतिमाएं स्थापित करवाते थे । छाजड़ा गोत्र विशेष रूप से पल्लीवाल गच्छ से सम्बन्धित था। सिसोदिया गोत्र के व्यक्ति संडेरक गच्छ के गुरुओं से सम्बन्धित थे । दुग्गड़ गोत्र और मिठडिया गोत्र के श्रावक बृहद् गच्छ और अंचल गच्छ के आचार्यों से प्रतिमाएं स्थापित करवाते थे। कभी-कभी एक ही गोत्र के व्यक्ति दो गच्छों के गुरुओं से भी प्रतिमाओं की स्थापना करवा लेते थे। जैसे साँखवलेचा गोत्र के व्यक्ति कोरंटक गच्छ और खरतर गच्छ दोनों के आचार्यों से स्थापना करवाते थे।
१. नाजैलेस, क्र० २१३६ । २. वही, क्र० २११४ । ३. ओजाइ, पृ० ५०९ । ४. जैसंशि, पृ० ६२८ । ५. वही, पृ० ६३१ ।। ६. जैइरा, पृ० १०० ।
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