________________
जैनधर्म भेद और उपभेद : १४३ (२) श्रीमाल :
जैनधर्म में श्रीमालों की उत्पत्ति श्रीमाल ( भीनमाल ) से हुई। कालक्रम में संख्या वृद्धि होने पर ये जोधपुर, सिरोही उदयपुर तथा अन्यत्र फैलते गये । समाज में इनका प्रभावशाली स्थान था । इनकी उत्पत्ति ८वीं शताब्दी के पूर्व की मानी जाती है । १३०८ ई० की 'कालकाचार्य कथा" को प्रशस्ति' से जानकारी मिलती है कि इस जाति के एक श्रावक दीदा ने शान्ति सूरि के उद्बोधन से ६४७ ई० में नवहर में आदिनाथ चैत्य का निर्माण करवाया था। श्रीमाल जाति की प्राचीनतम वंशावली के अनुसार इस जाति के भारद्वाज गोत्र के एक व्यापारी टोड़ा को ७३८ ई० में एक जैन सन्त ने उपदेश दिया था । अतः स्पष्ट है कि ८वीं शताब्दी में श्रीमाल जाति में जैन मत प्रचलन में था। विजयन्त नामक श्रीमाल राजा ने उदयप्रभ सूरि से जैनधर्म स्वीकार किया, उसके साथ ही ब्राह्मण मतानुयायी बासठ सेठों ने भी जैनधर्म अंगीकार किया । ये सब श्रीमाल कहलाये। कवि उदयरत्न द्वारा लिखित -"पंचपतरास", जिसमें उपकेश गच्छ की द्विवंदनिक शाखा के आचार्यों का इतिहास है, से ज्ञात होता है कि ७०० शक सम्वत् में रत्नप्रभ सूरि इस कस्बे में आये और उन्होंने श्रीमाल जाति की स्थापना की। उक्त सभी प्रकरणों से स्पष्ट प्रमाणित है कि श्रीमाल जाति ७वीं या ८वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई। कालान्तर में यह जाति लघु शाखा और वृहद शाखा में विभक्त हो गई । १४८८ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि श्रीमाल जाति की लघु शाखा के सहसकरण द्वारा अपनी मां की स्मृति में अंचल-गच्छीय सिद्धान्त सागर से आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी।" वृहद शाखा से सम्बन्धित एक पश्चात्वर्ती लेख भी उपलब्ध है। इस जाति की कई शाखाएँ हुई, जो प्राचीन राज्यों के नामों पर आधारित हैं। जैसे-टाक श्रीमाल, हरियाणा श्रीमाल, सोनगरिया श्रीमाल आदि । बीकानेर से प्राप्त कतिपय अभिलेखों में ताम्बी श्रीमाल, धन्डनिया श्रीमाल और कुमकुमलोत श्रीमाल का भी उल्लेख मिलता है। इस जाति के विभिन्न गोत्र, व्यवसाय, स्थान के नामों एवं अन्य आधारों पर निर्मित हुये।
१. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, क्र० ३५ । २. जैन साहित्य संशोधन एवं जैनाचार्य आत्माराम शताब्दी स्मा० ग्रन्थ, पृ० २०४ । ३. श्री जैन गोत्र संग्रह, पृ० १३-२९ । ४. प्राग्वाट इतिहास, भूमिका, पृ० १२ । ५. नाजैलेस, क्र० ११६६ । ६. वही, क्र० २९५ । ७. प्रलेस, क्र० ९८२, ४५४ । ८. बीजैलेस, क्र० १६२८, २७३६, १६९६, २२१८, १६०९ आदि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org