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४६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
राजस्थान के विभिन्न प्रदेशों में जैनों की उदार भावना, दानशीलता, परोपकार आदि के कई प्रमाण बिखरे पड़े हैं। वागड़ प्रदेश का अमात्य साल्हा दुष्काल के समय २,००० लोगों को प्रतिदिन भोजन करवाता था। अनेकों जैन राजनयिकों ने राजाओं को भी इस प्रकार के कार्य करने के लिये प्रवृत्त कर उनके राज्यों को 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' व सही अर्थों में कल्याणकारी राज्य की मान्यता दिलवाई। जैनधर्म के द्वारा इस प्रकार के संस्कारों का प्रवर्तन मानवता के कल्याणार्थ बहुत बड़ा योगदान हैं। ४. सात्विक जीवन की प्रेरणा :
धर्म का मूल केन्द्र व्यक्ति है, जिसकी जीवन पद्धति की पवित्रता व सात्विकता समाज को भी प्रभावित करती रही है । मध्यकाल में सात्विक जीवन की प्रेरणा देने में जैनधर्म का अपूर्व योगदान था। सामान्यतः जैन मतावलंबी एकपत्नीव्रती ही रहे । कतिपय अभिलेखों में द्विभार्या उल्लेख भी मिलते हैं, जिन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए । यह भी सम्भव है कि अन्य जातियों से धर्मांतरण कर जैन मत में दीक्षित व्यक्ति अपनी पूर्ववर्ती एकाधिक पत्नियों का त्याग नहीं कर पाये हों। जैन मतावलंबी शुद्ध शाकाहारी रहे और अन्य वर्गों को भी इनसे निरन्तर मांसाहार त्यागने को प्रेरणा मिलती रही। मांसाहार को बढ़ावा देने वाली बलि-प्रथा तो मध्यकाल की उत्तरवर्ती शताब्दियों में धीरे-धीरे लुप्त-प्राय हो गई । मुगल सम्राट अकबर जैनाचार्यों और जैन दर्शन से प्रभावित होकर अपने पश्चात्वर्ती जीवनकाल में पूर्ण अहिंसक हो गया था। उसने आखेट व मांसाहार त्याग दिया था। जैन मत में ऐसे खानपान का व जीवन पद्धति का सर्वथा निषेध रहा है, जिससे जीवन में तामसिक वृत्तियों को बढ़ावा मिले । जीवन में सात्विकता, पवित्रता व निर्मलता लाकर उदात्त भावों की सृष्टि करना जैनधर्म के उपदेशों की महत्वपूर्ण देन है। ५. सर्वधर्म एवं प्राणी समभाव: __जैनधर्म में धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति आद्यकालीन रही है । जाँति-पाँति, ऊंचनीच, जैन-अजैन आदि भेदों को कभी मान्यता नहीं रही । जैन साधुओं के लिये कुम्हार, बढ़ई आदि के यहाँ से भी आहार लेने का विधान है । तीर्थंकरों के समवशरण में जैसे सभी प्राणी धर्मोपदेशन के पात्र थे, उसी प्रकार आज तक भी जैन साधुओं के व्याख्यान जैनाजैन सभी को लाभान्वित कर रहे हैं। मंदिर एवं उपाश्रय प्रवेश किसी के लिये भी निषिद्ध नहीं रहे ।
मेवाड़ में केसरिया जी तथा नाकोड़ा पार्श्वनाथ, महावीर जी आदि सभी के पूज्य हैं। नाडोल के चौहान कीर्तिपाल के ११६१ ई० के ताम्रलेख के प्रारंभिक मंगलाचरण में ब्रह्मा, विष्णु व शिव को जैन जगत में प्रसिद्ध कहा गया है। ओसिया के सच्चिया
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