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१८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (९) मदार तीर्थ :
मदार, आबू से ३२ कि० मी० दूर स्थित है । अभिलेखीय और साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इसके प्राचीन नाम मदहृत' और मडाहर थे। इस स्थान का नामकरण सम्भवतः मदार देवी के आधार पर हुआ। मदार देवी के मन्दिर की दीवार के १२३० ई० के लेख से ज्ञात होता है कि इस स्थान का नाम 'मडाहड" था। पूर्ववर्ती काल में यह स्थान एक पवित्र जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध था। मेघ द्वारा १४४२ ई० में रचित "तीर्थमाला" में इस स्थान के महावीर मन्दिर का वर्णन है। शीलविजय ने भी १६९१. ई० में अपनी "तीर्थमाला" में इस तीर्थ का वर्णन किया है।
मदार में जैन धर्म बहुत प्राचीन काल से ही अस्तित्व में था। सिरोही के अजितनाथ मन्दिर की पीतल की प्रतिमा के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण अभिलेख में वर्णित है कि घारापदीय गच्छ से सम्बद्ध देवचन्द्र के पुत्र धनदेव ने मदाहद नामक स्थान पर १०८१ ई० में स्वयं के आध्यात्मिक कल्याण के निमित्त, वर्धमान की एक प्रतिमा स्थापित की थी। प्रसिद्ध जैनाचार्य वादिदेव सूरि मदाहद में ही १०८६ ई० में पैदा हुये थे । इनके पिता पोरवाड़ जाति के थे और उनका नाम वीरनाग था । चक्रेश्वर सूरि ने ११५६ ई० में "तपश्चरण भेदस्वरूप प्रकरण" यहीं पर लिखा ।' आबू के नेमिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा समारोह की वार्षिकी के लिये मनाये जाने वाले महोत्सव का कार्य पड़ोसी स्थानों के श्रावकों के सुपुर्द किया गया था। ८० दिन तक चलने वाले इस महोत्सव के विभिन्न संस्कारों में, ८वें दिन के संस्कार मदाहद के श्रावकों के सुपुर्द १२३० ई० में किये गये थे। जैनधर्म में प्रचलित मदाहृदीय या मदहद गच्छ, मदार गाँव से ही उत्पन्न हुआ। इस गच्छ का १२३० ई० का प्राचीनतम अभिलेख इसके उत्पत्ति स्थान मदार गाँव से ही प्राप्त किया गया है। इस क्षेत्र में खोजे गये विभिन्न अभिलेखों से. संकेत मिलता है कि इस गच्छ का इस क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव था। १४वीं व १५वीं
१. एसिटारा, पृ० ४२२ । २. अप्रजैलेस, क्र० ६६ । ३. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, पृ० ३०१ । ४. जैसप्र, १०, पृ० १९१ । ५. प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, पृ० १०५ । ६. एरिराम्यूअ, १९२८-२९, क्र० ३ । ७. प्रभावक चरित्र, पृ० १७१-१८२ । ८. जैसप्र, पृ० ५३ । ९. एइ, ८, पृ० २०६ । १०. अप्रजैलेस, क्र० ६६ ।
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