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जैन तीर्थ : १७३
पर या तो नवचौकी और सभामण्डप बनाये ही नहीं जा सके अथवा सम्भव है बनकर कभी विध्वस्त हो गये। (छ) अचलगढ़, मन्दिर चौमुखजी :
दिलवाड़ा से ६ कि० मी० दूर अचलगढ़ के मन्दिरों में चौमुखा जी का मुख्य मन्दिर विशिष्ट है । इसे महाराणा जगमाल के शासनकाल में अचलगढ़ निवासी संघवी सालिग के पुत्र सहसा ने बनवाया था। इसमें प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभ देव की धातु की विशाल प्रतिमा है । इसे डूंगरपुर के मूर्ति शिल्पी वाच्छा के पुत्र देपा एवं देपा के पुत्र हरदास ने ढाला था। मूर्ति पर १५०९ ई० का लेख है। चौमुख जी की दूसरी मूर्ति डूंगरपुर के ही मूर्ति-शिल्पी लुभा एवं लांपा ने बनाई थी। चौमुखजी की चारों मूर्तियाँ डूंगरपुर के श्रावकों के आदेश पर वहीं के मूर्ति शिल्पियों ने आबू में ही आकर ढाली थीं एवं इनकी प्रतिष्ठा अलग-अलग समय में सम्पन्न हुई थी। मन्दिर में कुम्भलगढ़ से लायी हुई धातु की प्रतिमाएँ भी हैं। इस मन्दिर में ऊपर-नीचे मिलाकर धातु की कुल १४ मूर्तियाँ हैं, जिनका वजन १४४४ मन होने की अनुश्रुति है । चित्तौड़ के प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र सूरि ने १४४४ प्रकरण लिखे थे। उनकी याद में रणकपुर के मन्दिर में १४४४ स्तम्भ बनाये गये एवं इस मन्दिर की धातु प्रतिमाओं का समन्वित वजन भी १४४४ मन रखा गया। (ज) आदिनाथ मन्दिर :
यह अचलगढ़ का दूसरा साधारण मन्दिर है। इस मन्दिर की देहरी में चार हाथ वाली देवी की एक सुन्दर प्रतिमा है, जिसके एक हाथ में खड्ग, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे में बीजोरा और चौथे में दर्पण जैसा कुछ है । व्याघ्र का वाहन होने से यह देवी अम्बा भवानी का सिद्धेश्वर रूप है, परन्तु यहाँ यह चक्रेश्वरी के नाम से पूजी जाती है, जिसके चारों हाथों में वरद, बाण, चक्र व पाश होते हैं तथा बाँये चारों हाथों में धनुष, वज्र, चक्र व अंकुश होते हैं। (झ) कुन्थुनाथ मन्दिर :
अचलगढ़ के इस तीसरे मन्दिर की प्रतिष्ठा १४७० ई० में हुई। यहाँ कुन्थुनाथ की प्रतिमा पंचधातु की है। इस मन्दिर में पद्मासनस्थ एक विशिष्ट मूर्ति है, जिसके शरीर पर वस्त्र के चिह्न हैं।
१. असावे, पृ० १७ । २. वही, पृ० १८। ३. वही। ४. वही, पृ० १९ ।
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