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________________ ४१० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इनकी संवतोल्लेख वाली रचनाएँ १६९५ ई० से १६९८ ई० तक की उपलब्ध होती हैं। १८. उदयचंद मथेण-खरतरगच्छीय जैन यति-आचार का पूर्णतया पालन न कर सकने वालों की अलग से मथेण जाति बन गई। इन्होंने बीकानेर के राजा अनुपसिंह के लिये नायक-नायिका और अलंकार वर्णन वाला 'अनूप रसाल' नामक काव्या १६६१ ई० में रचा। इन्होंने 'बीकानेर की गजल' १७०८ ई० में महाराजा सुजान सिंह के समय में लिखी ।३ १९. जिनरंग सूरि-ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के पट्टधर थे। इन्होंने राजस्थानी भाषा के साथ-साथ हिन्दी में 'जिनरंग बहोत्तरी' और 'आत्म प्रबोध बावनी' (१६७४ ई०) रची। २०. विनयलाभ-ये खरतरगच्छीय विनयप्रमोद के शिष्य थे। इन्होंने 'भर्तृहरि शतक त्रय' का पद्यानुवाद 'भाषाभूषण' नाम से किया। इन्होंने "बावनी' भी लिखी। रचनाओं में इनका नाम बालचंद भी प्राप्त होता है । . २१. केसवदास-ये खरतरगच्छीय लावण्य रत्न के शिष्य थे। इन्होंने हिन्दी में 'केसव बावनी' १६७९ ई० में और 'नेमिराजुल बारहमासा' १६७७ ई० में निबद्ध किया । इनका एक और बारहमासा भी मिलता है, पर इसमें गुरु का नामोल्लेख नहीं, है । केसव नाम के कई मुनि होने से इसके कर्ता का निर्णय करना सम्भव नहीं है । २२. खेतल-ये खरतरगच्छीय दयावल्लभ के शिष्य थे। इनका रचनाकाल १६८६ ई० से १७०० ई० रहा। हिन्दी रचनाओं में चित्तौड़ की गजल' (१६९१ ई०) और 'उदयपुर की गजल' (१७०० ई०) प्राप्त हैं। २३. मानकवि प्रथम-ये विजयगच्छीय थे और इन्होंने उदयपुर के महाराणा राजसिह संबंधी 'राजविलास' नामक ऐतिहासिक काव्य लिखा, जिसमें १६५० ई० तक की घटनाओं का वर्णन है । इसको १६८९ ई० की हस्तलिखित पांडुलिपि उदयपुर में प्राप्त है । 'बिहारी सतसई टोका' भी इनकी अन्य उल्लेखनीय रचना है।' १. राजैसा, पृ० २७६ । २. एकमात्र प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में। ३. विज्ञप्ति पत्रों में किया जाने वाला नगर वर्णन १७वीं शताब्दी में गजल कहलाता था। ४. राजैसा, पृ० २७७ । ५. वही । ६. वही। ७. वही। ८. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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