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________________ साधन स्रोत : १३ यात्रा पर जाने, वहाँ के संख्या भी अंकित की सूरि की " जैसलमेर परिपाटियाँ भी लिखी गईं। इनमें विभिन्न संघों के तीर्थ मन्दिरों, उनके नामों, अवस्थिति, दिशा, यहाँ तक कि मूर्तियों की जाती थी । इनमें नागषि की " जालौर चैत्य परिपाटी", जिनकुशल चैत्य परिपाटी", जयहेमसी की "चित्रकूट परिपाटी, पद्मानंद सूरि की " नागौर चैत्य परिपाटी" व " बदनौर चैत्य परिपाटी" तथा " मेड़तवाल परिपाटी" उल्लेखनीय हैं । " जीरावला, वर्द्धनपुर की चैत्य परिपाटियों से ज्ञात होता है कि ये दोनों स्थान कुंभा के राज्य में थे । कुंभा के समय " पार्श्वनाथ स्तवन" तथा " नाडलाई महावीर स्तवन"" रचे गये, जिनके रचनाकार अज्ञात हैं । कनकसोम के स्तवन से सिरोही में तुरासान खान द्वारा किये गये प्रतिमाओं के विध्वंस की जानकारी मिलती है । विनयप्रभ का "तीर्थयात्रा स्तवन" भी तीर्थों सम्बन्धी तथ्यों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है । ७. सनद एवं पत्र : समकालीन इतिहास को जानने के लिये सनद एवं पत्र भी एक विश्वसनीय साधन हैं । मध्यकाल में राजपूताना के शासकों एवं जैन आचार्यों के बीच पत्र-व्यवहार होता था । शासकों ने मन्दिर निर्माण हेतु जैनाचार्यों को भूमि खण्ड आवंटित किये थे तथा पूजा, प्रक्षालन आदि के व्यय के लिये अनुदान इत्यादि भी दिये थे, जिनसे सम्बन्धित सनदें जैन मुनियों के अधिकार में रही हैं । साथ ही जैन राजनीतिज्ञों की सेवा से प्रभावित होकर, विभिन्न रियासतों के शासन प्रमुखों ने उनके धर्म से सम्बन्धित जो अनुदान व रियायतें प्रदान की थीं, उनकी सनदें भी उनके उत्तराधिकारियों के पास सुरक्षित हैं । स्थाई अनुदानों के दानपात्र, ताम्रपत्रों पर भी लिखे होते थे । पहले इनमें संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था, किन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा । दानपत्र में राजा का नाम, अनुदान पाने वाले का नाम, कारण, भूमि का विवरण, समय, दानदाता का नाम आदि का उल्लेख होता था । ८. विज्ञप्ति - पत्र : जो सम्प्रदाय विशेष कें व्यतीत करने के लिये ये जैन मुनियों को प्रेषित एक प्रकार के निमन्त्रण पत्र थे, जैन संघों द्वारा मुनियों को आगामी चातुर्मास निश्चित स्थान पर प्रेषित किये जाते थे । संघ के किसी सदस्य के कर्मों व कार्यकलापों के प्रायश्चित हेतु ये आदेश पत्र के रूप में, तथा सम्पूर्ण मानवता के प्रति सद्भावनाएँ सम्प्रेषित करने के लिये भी ये तैयार किये जाते थे । विज्ञप्ति व आदेश पत्रों को स्वतंत्र साहित्यिक रचना के रूप में स्थान नहीं दिया गया है, फिर भी ये पत्र भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि १. एसिटारा, पृ० १४ । २ . तारा मंगल - महाराणा कुंभा और उनका काल, पृ० १५० । ४. वही, पृ० १५० । ५. बीजैलेस, पृ० २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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