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१४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं
हैं । तत्कालीन पत्र साहित्य, संस्कृति और कला के अन्यतम प्रतीक हैं । समसामयिक - महत्त्व की राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक बातों का प्रामाणिक उल्लेख इनमें मिलता है । कतिपय पत्र तो महाकाव्य की संज्ञा से अभिहित किये जा सकते हैं । ये पत्र तत्कालीन परिस्थितियों के अच्छे निदर्शन तो हैं ही, साथ ही भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी उपादेय हैं । अन्य कई दृष्टियों से भी ये महत्वपूर्ण हैं । ये सामान्यतया प्रेषक - समुदाय के बारे में सचित्र जानकारी भी देते हैं । स्थानीय इतिहास एवं घटनाओं को जानने के दृष्टिकोण से इनकी महती उपादेयता है । इनमें स्थानीय जनता के व्यापार, वाणिज्य, रोजगार, कला एवं उद्योग धंधों सम्बन्धी सामग्री होने से भी ये लाभकारी हैं । जैन कला के इतिहास की दृष्टि से भी ये अत्यन्त उपयोगी स्रोत हैं । विज्ञप्ति पत्र जैन समाज की सन्तों के प्रति श्रद्धा भावना के द्योतक हैं, तथा तत्कालीन परिस्थितियों पर विशद प्रकाश डालते हैं । इनसे स्थान विशेष की भौगोलिक विशेषताओं का ज्ञान भी प्राप्त होता है । ये मुख्य रूप से जैसलमेर, चित्तौड़, जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, सिरोही जैसे नगरों से प्रेषित किये जाते थे । सचित्र विज्ञप्ति पत्रों की परम्परा १६वीं शताब्दी से विजयसेन सूरि वाले पत्र से प्रारम्भ होती है । 3 अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ के समय -इनके निर्माण में शाही चित्रकारों का भी उपयोग किया जाता था ।
९. सचित्र हस्तलेख :
बीकानेर, जयपुर, नागौर, जैसलमेर आदि के जैन ग्रन्थ भण्डारों में कई सचित्र हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं । ये जैन मतावलम्बियों की सुस्संकृत अभिरुचि एवं परिष्कृत - कला ज्ञान का दिग्दर्शन कराते हैं । राजस्थान में चित्रकला की समृद्धि में जैनों का अपरिमित योगदान है । निर्माण तिथि अंकित होने के कारण ये सचित्र ग्रन्थ जैन चित्र - कला एवं प्रकारान्तर से भारतीय चित्रकला का इतिहास उद्घाटित करते हैं, जिसका प्रारम्भ १२वीं शताब्दी की काष्ठ पट्टिकाओं और अलंकृत ताड़पत्रीय प्रतियों से माना जाता है । वस्त्रपट्ट पर तीर्थों का चित्रण करने की परम्परा होने से तत्कालीन तीर्थों की स्थिति भी स्पष्ट होती है । इन चित्रों से जैन-धर्म के सांस्कृतिक स्तर का बोध होने - के साथ-साथ चित्रकला के इतिहास, जैन धर्म का योगदान, कलाकारों के नाम, रंगों का प्रयोग एवं संयोजन आदि तथ्यों का भी ज्ञान होता है । भौगोलिक वस्त्र पट्ट भी विक्रम की १५वीं शताब्दी से बराबर बनते आ रहे हैं, जो जैन भौगोलिक मान्यताओं को जानने के लिये सचित्र एलबम हैं ।
१. मुहस्मृग, पृ० ८५५ ।
२. वही, पृ० ८५५ ।
३. नाहटा, राजस्थान वैभव पृ० १२ ।
४. वही, पृ० १२ ।
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