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________________ ४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महत्त्वपूर्ण है। इसमें उकेश वंश के सीहा और समदा द्वारा, महाराणा रायमल के काल में, उनके पुत्र कुंअर पृथ्वीराज की आज्ञा से, आदिनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है । आचार्य ईश्वरसूरि कृत और सूत्रधार सोमा द्वारा उत्कीर्ण, इस लेख में संडेरक गच्छ के आचार्य यशोभद्र सूरि द्वारा ९०७ ई० में इस मन्दिर को बनवाने का उल्लेख है । यशोभद्र सूरि का धार्मिक प्रभाव क्षेत्र गौडवाड़, मेवाड़ व चित्तौड़ तक भी था। चित्तौड़ के 'सतबीस देवरी' के १०वीं शताब्दी के खण्डित लेख में भी यशोभद्र सूरि-परम्परा के आचार्य का उल्लेख है। राजपूतों के अप्रतिम नायक महाराणा प्रताप ने मुनि हीरविजय को एक पत्र लिखकर धर्म प्रचारार्थ मेवाड़ में आने का निवेदन किया था । १५७८ ई० में प्राचीन मेवाड़ी भाषा में लिखित यह पत्र, जैन इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि राणा प्रताप अकबर के विरुद्ध निरन्तर युद्धरत रहते हुये भी धर्म-तत्व एवं प्रजा को भावनाओं को उपेक्षा नहीं करते थे तथा महान् जैन सन्तों का समादर करते थे। वे धर्मानुरागी एवं जैन मत के प्रति बहत स्नेहशील थे। १५८३ ई० की राणकपुर प्रशस्ति में उल्लेख है कि हीरविजय सूरि के उपदेश से, प्राग्वाट जाति के साह खेता आदि ने, ४८ सुवर्ण माणक प्रतोली के निमित्त अनुदान दिया था। (२) वागड़ प्रदेश में जैन मत : डूगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों का सम्मिलित नाम वागड़ प्रदेश था । यहाँ के शासकों के संरक्षण में जैन मत बहुत समृद्ध हुआ। इस क्षेत्र में दिगम्बर जैनों का अधिक प्रभाव था । अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार डूंगरपुर, गलियाकोट, सागवाड़ा, नौगाम आदि दिगम्बर जैनों के केन्द्र थे, किन्तु वागड़ "प्रवासगीतिका' के अनुसार इस प्रदेश में श्वेताम्बर जैनियों ने भी कुछ मन्दिर बनवाये थे। इस प्रदेश में कई मंत्रियों एवं आचार्यों ने मन्दिर निर्मित करवाये और उनके स्थापना तथा प्रतिष्ठा समारोह धूमधाम से सम्पन्न करवाये। इनके संरक्षण में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ भी तैयार करवाये गये । यहाँ जैन मत के प्रचार के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ थीं, अतः तेली आदि अन्य जातियों के लोग भी सम्मानवश अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करते थे। इस क्षेत्र की प्राचीन राजधानी वटप्रदा (बड़ौदा) थी। इस क्षेत्र में पार्श्वनाथ मन्दिर की एक शिला पर २४ तीर्थंकरों को आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । इस शिला का १३०७ ई० का लेख, खरतरगच्छ के जिनचन्द्र सूरि द्वारा इसकी स्थापना का वर्णन करता १. भावनगर इन्स्क्रिप्शन्स, सं० १२, पृ० १४३-१४५ । २. राइस्त्रो, १५८ । ३. राजपूताना के जैन वीर, पृ० ३४१-४२ । ४. नाजैलेस, भाग-१, सं० ७१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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