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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३९ बलावी, रखवाली, गाड़ियों और बैलों पर लिये जाने वाले कर, आगे से नहीं लेने का आदेश है । १४५० ई० के राणकपुर के लघु लेख में, कुछ श्रावकों द्वारा प्रासाद और देवकुलिकाएं निर्मित करवाने का उल्लेख है ।२ नाडोल के १४५१ ई० के अभिलेख में, स्थानीय जगसी परिवार द्वारा चतुर्विशति जिन-प्रतिमाओं के निर्माण व उनकी प्रतिष्ठा, देवकुल पाठक में, रत्नशेखर सूरि द्वारा करवाने का उल्लेख है। बसन्तगढ़ के जैन मन्दिर में एक प्रतिमा लेख से ज्ञात होता है कि धनसी के पुत्र भादाक ने यह प्रतिमा स्थापित करवाई और मुनि सुन्दरसूरि से १४५३ ई० में इसका प्रतिष्ठा समारोह करवाया गया। माउण्ट आबू में, अचलगढ़ में, आदिनाथ प्रतिमा पर उत्कीर्ण १४६२ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जब कुम्भलमेर पर महाराणा कुम्भा का शासन था, तब यह प्रतिमा डूंगरपुर में रावल सोमदास के शासनकाल में बनवाई गई थी और तपागच्छ संघ के द्वारा आबू लाई गई थी। यहां की एक अन्य पीतल की आदिनाथ को प्रतिमा के १४७३ ई० के लेख में भी, प्रतिमा का डुगरपुर में ही निर्मित होने का उल्लेख है । कुम्भाकाल में मेवाड़ में तपागच्छ व खरतरगच्छ का विशेष प्रभाव रहा । तपागच्छ के आचार्य सोमसुन्दर सूरि, मुनि सुन्दर, सोमदेव, जयशेखर सूरि, जिनहर्षगणि, रत्नशेखर, माणिक्यरत्नगणि, खरतरगच्छ के जिनराज, जिनवद्धन, जिनचन्द्र, जिनसागर, जिन सुन्दर तथा दिगम्बर आचार्य सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति, ब्रह्म जिनदास आदि ने चित्तौड़ में विपुल साहित्य सृजन किया। __ जैन धर्म राणा कुम्भा के पुत्र एवं उत्तराधिकारी, राणा रायमल के शासनकाल में भी फलता-फूलता रहा । इनके काल के १४८१ ई० के लेख में, खरतरगच्छीय परम्परा के आचार्यों की नामावली, शान्तिनाथ मन्दिर और जयकीर्ति का उल्लेख मिलता है।' उदयपुर के १४९९ ई० के एक अभिलेख से सूचना मिलती है कि विजयी राजा राणा रायमल के शासनकाल में महावीर, अम्बिका आदि के मन्दिर निर्मित हुये थे । रायमल के काल की १५०० ई० की, नाडलाई के आदिनाथ मन्दिर की स्तम्भ-प्रशस्ति विशेष
१. राइस्त्रो, पृ० १४२ । २. वही, पृ० १४३ । ३. वही। ४. एरिराम्यूअ, १९२३-२४, सं०८। ५. वही, १९२५-१६, क्र० ८। ६. ओझा-डूगरपुर राज्य, पृ० ७१ । ७. तारा मंगल-महा० कुम्भा, पृ० १४५-१५२ । ८. राइस्त्रो, पृ० १५३ ।। ९. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ६० ।
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