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३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं
नीय पोरवाड़ पण्डित लक्ष्मणसिंह ने पार्श्वनाथ जिनालय में, पार्श्वनाथ की दो कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई ।" लक्ष्मणसिंह, काछोलीवालगच्छीय आचार्य भद्रेश्वर सूरि, रत्नप्रभ सूरि के पट्टालंकार सर्वानन्द सूरि का श्रावक था । देलवाड़ा के ही एक अन्य १४३७ ई० के अभिलेख में पिछोलिया जाति के हासा द्वारा एक कायोत्सर्ग प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है 13 देलवाड़ा के ही १४३७ ई० के दूसरे लेख में, वत्सराज के पुत्र वीसल द्वारा "क्रियारत्नसम्मुच्चय" की दस प्रतियाँ लिखवाने का वर्णन है । *
नागदा के अद्भुत जी के मन्दिर में १४३७ ई० में एक व्यापारी सारंग के द्वारा, कुम्भा के शासनकाल में ही शान्तिनाथ की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई गई थी । " चित्तौड़ से ही प्राप्त १४३८ ई० के एक विस्तृत शिलालेख में कई सूचनाएँ हैं । इसमें एक जैन मन्दिर के निर्माण, उसके निर्माता साघु गुणराज की वंशावली, १४२० ई० की शत्रुंजय यात्रा में सोम सुन्दर सूरि के नेतृत्व में श्रेष्ठी का सहयोग तथा बादशाह के फरमान से यात्रा में सुविधाएँ प्राप्त करने, राणा मोकल की आज्ञा से मन्दिर निर्मित करवाने तथा प्रशस्ति के रचनाकार जैन साधु चारित्र्य रत्नगणि आदि तथ्यों का उल्लेख है । १४३९ ई० की कुम्भाकालीन राणकपुर मन्दिर की प्रशस्ति में मेवाड़ राजवंश, मन्दिर निर्माता धरणा श्रेष्ठी का वंश, प्रतिष्ठाकारक आचार्यों जैसे जगचन्द्र सूरि, देवेन्द्र सूरि व सोमसुन्दर सूरि तथा सूत्रधार देपाक आदि के नाम वर्णित हैं ।" चित्तौड़ दुर्ग स्थित शृंगार चँवरी' के जैन मन्दिर के १४४८ ई० के स्तम्भलेख के अनुसार, कुम्भा के एक विशिष्ट अधिकारी साहकोला के पुत्र भण्डारी वेला ने इस शान्तिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था । मन्दिर के स्थापत्य के आधार पर यह और भी प्राचीन प्रतीत होता है । सम्भवतः वेला ने तो मुस्लिम विध्वंस के उपरान्त इसका जीर्णोद्धार व प्रतिष्ठा ही करवाई थी ।° कुम्भा के काल के ही आबू के १४४९ ई० के सुरह लेख में, दिलवाड़ा के मन्दिरों के लिये यात्रा करने वालों से मंडपिका कर याण,
१. राइस्त्रो, पृ० १३६ ॥
२. वही ।
३. वही ।
४. राइस्त्रो, पृ० १३७ ॥
५. प्रोरिआसवेस, १९०५, पृ० ६१ ।
६. वरदा, वर्ष ११, अंक २ ।
७. वही ।
८. भावनगर इन्स्क्रिप्शन्स, क्र० ८, पृ० ११४ ।
९. एरिराम्यूअ १९२० -२१, क्र० १० । १०. राइस्त्रो, पृ० १४२ ।
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