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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३७ इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।' राणा खेता के काल में जैन मंदिर के निमित्त आयोजित एक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर, संस्कृत में तत्सम्बन्धी एक विज्ञप्ति लेख की रचना हुई, जिसकी पुष्पिका से प्रतीत होता है कि इसकी रचना केलवाड़ा ग्राम में हुई थी। खेता की परम्परा का निर्वाह उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी, राणा लाखा द्वारा भी किया गया। इनके समय तक देलवाड़ा तथा चित्तौड़ के ज्ञान-केन्द्र सुसमृद्ध हो चुके थे तथा देलवाड़ा में तो एक ग्रन्थ भण्डार की स्थापना भी हो चुकी थी। देसूरी गांव के निकट, कोट-सोलंकियों के एक जीर्ण मंदिर के १४१८ ई. के अभिलेख में, राणा लाखा के विजय काल में, पार्श्वनाथ के चैत्य के मण्डप के जीर्णोद्धार का वर्णन है।
जावर गाँव के पार्श्वनाथ मंदिर में उत्कीर्ण १४२१ ई० की प्रशस्ति में वर्णित है कि राणा मोकल के समय, प्राग्वाट साह नाना ने उसकी भार्या फनी और पुत्र साहरतन आदि के साथ विभिन्न तीर्थों की यात्रा की थी, तथा संघपति साह धनपाल ने भी पुत्र एवं पुत्र-वधुओं के साथ शांतिनाथ का मंदिर बनवाया था।" इस प्रशस्ति में कई जैनाचार्यों के नाम भी अंकित हैं । राणा मोकल के खजांची (कोषाध्यक्ष), गुणराज ने १४२८ ई० में राणा के आदेशों से महावीर का एक मंदिर निर्मित करवाया । नागदा में १४२९ ई० में पोरवाड़ जाति के एक व्यापारी ने पार्श्वनाथ मंदिर निर्मित करवाया। मोकल के पश्चात् उनके पुत्र कुम्भकर्ण राजा हुये, जो जैनमत के बहुत बड़े समर्थक थे। उनके शासनकाल में न केवल प्रतिमाओं और मंदिरों की स्थापना हुई, अपितु इन्होंने स्वयं सादड़ी में एक भव्य जैन मंदिर निर्मित करवाया। इनके शासन में ही, रणकपुर और कमलगढ़ के प्रसिद्ध चौमुख जैन मंदिर निर्मित हुये थे। देलवाड़ा के एक जैन आश्रम में उपेक्षित पड़े हुये प्रस्तर पर उत्कीर्ण १४३४ ई० के अभिलेख में, उनके विजयपूर्ण शासन में धर्म चिंतामणि मंदिर की पूजा के लिये १४ टंका आवंटित करने का उल्लेख है । १४३४ ई० के ही नागदा के जैन मंदिर के एक लेख में, श्रेष्ठी रामदेव के परिवारजनों की धर्मनिष्ठा व जैनाचार्यों का नामोल्लेख है । देलवाड़ा के १४३६ ई० के लेख में वर्णित है कि स्था
१. ओझा-उदयपुर राज्य, १, ५० ४१-४२ । २. विज्ञप्ति लेख संग्रह, सं० मुनि जिनविजय । ३. तारामंगल-महाराणा कुंभा और उनका काल, पृ० १४१ । ४. मरू भारती, अप्रैल १९६७, पृ० १। ५. ओझा-उदयपुर राज्य, १, पृ० २७९ । ६. मध्यप्रांत, मध्यभारत और राजपूताना के प्राचीन जैन स्मारक, पृ० १३७ । ७. प्रोरिआस वेस, १९०४-५, पृ० ६२ । ८. हिस्ट्री ऑफ इंडियन आर्किटेक्चर, पृ० २४० । ९. एरिराम्यूअ, १९२३-२४, क्र० ७ ।
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