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________________ ३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं प्रतापगढ़ के मंदिर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण १३०६ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जयतल्ला देवी के कल्याणार्थं, राजपुत्र तेजाक ने अपनी भार्या रतनादेवी और पुत्र विजयसिंह के साथ जैन प्रतिमा की स्थापना की ।' १३०० ई० के चित्तौड़ के एक खण्डित लेख में धर्मचन्द्र, उनकी गुरु परम्परा तथा एक मान स्तम्भ की स्थापना का वर्णन है । इस प्रशस्ति में तत्कालीन जैनाचार्यों की परम्परा तथा शिक्षा के स्तर का उल्लेख है । लेखानुसार, कुंदकुंद - आचार्य - परम्परा में केशवचन्द्र, देवचन्द्र, अभयकीर्ति, वसन्तकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकोर्ति और धर्मचन्द्र थे । केशवचन्द्र को तीनों विधाओं का विशारद व १०१ शिष्यों का गुरु बताया गया है लेख की प्रथम पंक्ति में पुण्यासह का भी नाम है ।२ १३वीं शताब्दी के ही चित्तोड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ के तीन लेख प्राप्त होते हैं। तीनों लेखों का सम्बन्ध चित्तौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ से है, क्योंकि तीनों में स्तम्भ के संस्थापक साह जीजा तथा उनके वंश का विवरण है। वैसे इन लेखों में समय अंकित नहीं है, किन्तु १३०० ई० की उक्त प्रशस्ति में वर्णित जैनाचार्यों की परम्परा के सन्दर्भ में, ये लेख भी १३वीं शताब्दी के ही हैं । प्रथम लेख के प्रारम्भ में दीनाक तथा उसकी भार्या वांछी के पुत्र, नाथ के द्वारा एक मंदिर के निर्माण का वर्णन है । नाथ की पत्नी नागश्री और उसका पुत्र जीजू थे, जिन्होंने चित्तौड़ में चन्द्रप्रभ मंदिर और खोहर नगर में भी एक मंदिर बनवाया था । जीजू के पुत्र पूर्णसिंह ने अपने धन का उपयोग दान के द्वारा किया । इनके गुरु विशालकीर्ति के शिष्य शुभकीर्ति के शिष्य धर्मचन्द्र थे । ये महाराणा हम्मीर द्वारा सम्मानित थे तथा इन्होंने मान स्तम्भ की स्थापना भी की थी। दूसरे लेख की अन्तिम पंक्ति में बघेरवाल जाति के सानाय के पुत्र जीजा द्वारा स्तम्भ निर्माण का उल्लेख है । तीसरे लेख के अन्तिम भाग में जीजा युक्त संघ की मंगल कामना की गई है । इन तीनों लेखों को चित्तौड़ के १३०० ई० के लेख के साथ पढ़ने पर जैन कीर्ति स्तम्भ का निर्माण १३वीं शताब्दी में हुआ माना जाना चाहिये । जैन कीर्ति स्तम्भ के अन्य दो लेखों के अनुसार जीजा द्वारा स्तम्भ निर्माण व पुण्यसिंह द्वारा इसकी प्रतिष्ठा का वर्णन है । 4 ऋषभदेव मंदिर, धुलेव के खेला मंडप की दीवार में अनुसार काष्ठा संघ के भट्टारक धर्म कीर्ति के उपदेश से १. एरिराम्यूअ १९२१-२२, क्र० ३ । २. जैशिस, पृ० ६३-६४ । ३. जैशिस, पृ० ६४ -७० । ४. राइस्त्रो, पृ० १२१ । ५. वरदा, ९, अंक १ | Jain Education International लगे १३७४ ई० के लेख के साह जीजा के बेटे हरदान ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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