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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४९
आदि की प्रतिष्ठा हुई और फिर १२११ ई० में दीपोत्सव पर पूर्ण देव सूरि के शिष्य रामचन्द्राचार्य ने स्वर्ण कलश की प्रतिष्ठा की । "
महाराजा चाचिगदेव के शासनकाल के, जालौर के महावीर मन्दिर के १२६६ ई० के लेख में, मठपति गोष्ठिक के समक्ष मन्दिर के निमित्त अनुदान का उल्लेख है । जालौर से ही प्राप्त महावीर मन्दिर के १२६३ ई० के लेख में भी मन्दिर को दिये गये दान का उल्लेख है । 3 जसोला से ३ मील दूर स्थित, नगर में जैन मत अत्यधिक लोकप्रिय था । यह नगर जोधपुर राज्य की प्राचीन राजधानी खेडा के शासक मल्लिनाथ के उत्तराधिकारियों द्वारा शासित होता था । इस स्थान के राठौड़ शासक उदार दृष्टिकोण वाले थे । अतः जैन मत उन्नतिशील रहा । १४५९ ई० में रादुंद के शासनकाल में गोविन्दराज ने मोदराज गणि के उपदेशों से प्रभावित होकर महावीर मन्दिर के लिये अनुदान दिया था । रावल कुशकण के शासनकाल के ऋषभदेव मन्दिर से प्राप्त १५११ ई० के अभिलेख में वर्णित है कि विमलनाथ मन्दिर के रंगमण्डप का निर्माण वीरमपुरा के संघ के द्वारा करवाया गया था ।" जोधपुर में सुमतिनाथ एवं शीतलनाथ की प्रतिमाओं के १५०८ ई० के लेखों में, भण्डारी गोत्र के साहू नरा एवं परिवार द्वारा, संडेरगच्छ के शांति सूरि के माध्यम से सुमतिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठा और उपकेशवंशीय सांडा एवं परिवार द्वारा, सिद्धान्तिगच्छ के देवसुन्दर सूरि द्वारा शीतलनाथ की बिम्ब प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । रावल मेघविजय राजा के शासनकाल में शांतिनाथ मन्दिर के नली मण्डप का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ था । ७ १५८० ई० के अभिलेख में वर्णित है कि इस मन्दिर का रावल मेघविजय के शासनकाल में जीर्णोद्धार किया गया था, जो अकबर प्रतिबोधक हीरविजय सूरि के द्वारा सम्पन्न हुआ था ।
लगभग १४८८ ई० में बीकाजी ने अपने समर्थकों के साथ जोधपुर नगर त्याग कर बीकानेर की स्थापना की थी । उन्होंने व उनके उत्तराधिकारियों ने जैन धर्म की प्रभावना को पुष्ट करने में अत्यधिक उत्साह प्रदर्शित किया । अकबर का समकालनी महाराजा रायसिंह, जिनचन्द्र सूरि का शिष्य बन गया था । अपने मंत्री कर्मचन्द्र के निवेदन व सहयोग से १५८२ ई० में वह अकबर की आज्ञा से, सिरोही जैन मन्दिर से तुरासानखान
१. राइस्त्रो, पृ० १०१ ।
२. नाजैलेस, १, क्र० ९०३, पृ० २३८ ।
३. वही, क्र० ९०१ ।
४. वही, ३, क्र० ९३१ ।
५. प्रोरिआसवेस, १९११-१२, पृ० ५४ ।
६. नाजैलेस, भाग १, क्र० ५९६ ।
७. प्रोरिआसवेस, १९११-१२, पृ० ५४ ।
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