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________________ जैनधर्मं भेद और उपभेद : १२५ । बताया । शास्त्रों के आलोचनात्मक अध्ययन के पश्चात् इन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जैन साधु शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत नहीं करते थे । भीखण जी ने स्थानकों के अलावा अन्य स्थानों पर भी ठहरना प्रारम्भ कर दिया । एक बार कुछ साधु और उनके अनुयायी, जो संख्या में कुल १३ थे, एक दूकान में ठहरे हुए थे । इसे देखकर सेवग जाति के एक कवि ने इनका उपहास करते हुए एक दोहा रचा आप आपरो गेलो करई, ओ तेरापंथी मंत | सुण जो रे शहर रा लोगों, ओ तेरापंथी मंत ॥ किन्तु भीखण ने इसकी समुचित व्याख्या दी और कहा कि तेरह के अन्तर्गत ५ प्रतिज्ञायें ( महाव्रत ), ५ आचरण के नियम ( समिति ) और ३ गुप्तियाँ सम्मिलित हैं । तेरहपंथी मूर्तिपूजक नहीं हैं । उनके अनुसार मूर्ति पूजा से मोक्ष प्राप्त नहीं होता । वे ध्यान पर जोर देते हैं । कर्म बन्धन से मुक्त हो चुकी आत्माओं का मानसिक पूजन करते हैं । इनका विश्वास उन जीवित प्राणियों की पूजा व सम्मान में है, जिन्होंने संसार को त्याग कर पंचमहाव्रत का पालन करते हुए कठोर त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया है । सभी साधु-साध्वी आचार्य के आदेशों का पालन करते हैं । इनके गणवेश स्थानकवासी साधुओं की तरह ही है, केवल मुँहपत्ती की लम्बाई में अन्तर है । इस पंथ की लोकप्रियता राजस्थान में बहुत रही तथा बीकानेर, सरदार शहर, जोधपुर, मेवाड़ आदि क्षेत्रों में यह विशेष रूप से लोकप्रिय रहा । तेरापंथ का अभ्युदय १८वीं शताब्दी तक हुये, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भेद-उपभेद में अन्तिम भेद माना जा सकता है | (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद : ( ख - १ ) प्रवर्तमान संघ : १. काष्ठा संघ :-- - १७वीं व १८वीं शताब्दी में यह संघ राजस्थान में अधिक प्रचलन में नहीं था । इन शताब्दियों के इस संघ के उल्लेख के बहुत कम लेख प्राप्त होते हैं | आदिश्वर मन्दिर गागरडू में स्थित अनन्त यन्त्र के १६०८ ई० के लेख में काष्ठा संघ के भट्टारक विश्वसेन के शिष्य विद्याभूषण व उनके पट्टधर श्री भूषण द्वारा सागवाड़ा में प्रतिष्ठा का उल्लेख है । १६९७ ई० में सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से एक छोटा मन्दिर बनवाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है। केसरिया जी के मन्दिर में इस संघ के उल्लेख के १६४७ ई०, १६७७ ई०, १६९१ ई०, १६९६ ई०, १६९९ ई०, १७०६ ई०, १७०७ ई०, १७०८ ई०, १७११ ई० और १७९२ ई० के १. प्रलेस, क्र० १०८४ । २. ओझा, उदयपुर राज्य, पृ० ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only १७०३ ई०, शिलालेख एवं www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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