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१२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
गया और चैत्यवास जैसी बुराइयाँ प्रविष्ट होने लगीं । सूरत निवासी लवजी जो मूलतः लोका गच्छ के अनुयायी थे, ने जैन मत में मुनि दीक्षा ग्रहण की। शास्त्रों के प्रतिकूल आचरण को देखकर, उन्होंने अपने गुरु से विरोध प्रकट किया। अन्ततः शास्त्रोक्त संयम पालन की प्रतिज्ञा लेकर वे अपने दो साथियों थोभण व सखिया के साथ लोंका गच्छ से पृथक् हो गये । एक ढूंढे में ठहरने के कारण लोग इन्हें 'दंढिया" कहने लगे। ये टूढिया साधु ही स्थानक में वास करने के कारण स्थानकवासी कहलाने लगे। ___इस पंथ के मुनियों ने स्वयं के जीवन में कठोर संयम पालन का आदर्श प्रस्तुत कर व्यवहारिक शिक्षा दी, जिससे यह बहुत लोकप्रिय हुआ । लोंका गच्छ के बहुत से अनुयायी स्थानकवासी हो गये। लवजी ने यह अमूर्तिपूजन पंथ १६५७ ई० में स्थापित किया । इस पट्ट की आचार्य परम्परा में धर्मदास ने स्वयं ही दीक्षा ग्रहण की। इनके ९९ शिष्य कालान्तर में २२ शाखाओं ( टोलों ) में विभक्त हो गये। अतः यह पंथ "बाईसा -सम्प्रदाय" या "बाईस टोला" भी कहलाने लगा। ये टोले इस प्रकार थे
लालचन्द टोला, धनाजी टोला, मनाजी टोला, प्रीथाजी टोला, बालचन्द टोला, लोहोडा पीथाजी टोला, रामचन्द टोला, मूलचन्द टोला, ताराचन्द टोला, खेमजी टोला, पंदारथजी टोला, खेमाजी टोला, तलोकजी टोला, पदारथजी टोला, भाण्दास टोला, परसराम टोला, भवानीदास टोला, मुकुट राम टोला, मनोहर टोला, सामीदास टोला, सागजी टोला और समरथ टोला ।
कालान्तर में स्थानकवासियों व टोलों से भी कई शाखाएँ पृथक् होती गई । जैसे 'धनाजी टोले में रघुनाथ सम्प्रदाय, जयमल, सम्प्रदाय, रतनचन्द्र सम्प्रदाय, चौथमल सम्प्रदाय अलग-अलग हये। इसी प्रकार अन्य टोले भी कई शाखाओं में विभक्त हो गये । राजस्थान में स्थानकवासी सम्प्रदाय १७वीं व १८वीं शताब्दी में अत्यधिक लोक'प्रिय हुआ और अनेक स्थानों पर स्थानक व उपाश्रय निर्मित हुए ।
२. तेरापंथी समुदाय-स्थानकवासी सम्प्रदाय से ही यह तेरापंथ अलग हुआ । आचार्य धर्मदास के २२ शिष्यों में से एक धन्नोजी थे। इनकी गादी के तृतीय उत्तराधिकारी आचार्य रघुनाथ हुए। इस पंथ के संस्थापक भीखण ने रघुनाथ से ही दीक्षा प्राप्त की। पंथ के कतिपय सिद्धान्तों के सम्बन्ध में गुरु शिष्य में मतभेद पैदा हुआ, जो अन्ततोगत्वा १७६० ई० में आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन एक नये पंथ के रूप में अस्तित्व में आया। प्रारम्भ में इस पंथ में १३ मुनि और १३ व्यक्ति थे, अतः यह तेरापंथ कहलाया। आचार्य भीखण ने तेरापंथ का अभिप्राय, "ईश्वर यह तेरा ही मार्ग है" ऐसा
१. पप्रस, पृ० १४६ । २२. वही, पृ० ३११ ।
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