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. ३०६ : मध्यकालीन राजस्थान में अनधमं
गई है ।" द्राविड़ शैली, दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली और वेसर शैली दोनों की विशेषताएँ लिए हुये मानी जाती है । २
इन शताब्दियों के मन्दिर अपनी निर्माण योजना में सादगीपूर्ण हैं, तथा सात्त्विक एवं पवित्र वातावरण की सृष्टि करते हैं । मन्दिर योजना में मूनालयक गर्भगृह, इसके ऊपर वर्तुलाकार शिखर, गर्भगृह के सामने खम्भों की पंक्ति पर बन्द या खुला सभामंडप होता था । स्तम्भ नीचे से अधिक विस्तार वाले व ऊपर जाकर आकार व अनुपात में हल्के होते जाते थे । मन्दिरों में साज-सज्जा बहुत अधिक नहीं होती थी तथा कामुक दृश्यों का पूर्ण अभाव होता था । मन्दिर की मूल योजना क्रास के आकार की होती थी । इनकी शैलीगत सादगी से प्रतीत होता है कि ये गुप्तकालीन मन्दिरों को सामान्य नकल रहे होंगे ।
इन शताब्दियों के मन्दिर अलंकरण की दृष्टि से पूर्ण होते थे । स्तम्भों का आकार घट-पल्लव या ऊपर जाकर पतला होता हुआ विविध प्रकार का बनाया जाता था । ८वीं शताब्दी के पूर्व भी वास्तुकला के कई ग्रन्थ अस्तित्व में थे, अतः क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताओं के अनुरूप वास्तु-शास्त्रीय पद्धति से मन्दिर निर्मित होते थे । इस काल के प्रस्तर कलाकार पश्चिम भारतीय कला पद्धति से संबद्ध थे, जिसका मूल केन्द्र 'गुजरात व पश्चिमी राजस्थान था । वास्तुकार गुजरात व राजस्थान के प्रदेशों में विचरण करते रहे होंगे या इनकी गुरु परम्परा गुजरात से अवश्य सम्बद्ध रही होगी, क्योंकि गुजरात में काष्ठ कला का प्रचलन अधिक था, अतः काष्ठ के स्थापत्य की अधिकांश विशेषताएँ - निपुणता एवं महानता इस काल के मन्दिरों में झलकती हैं । काष्ठ को दीमक से बचाने के लिए स्तम्भ का आधार घट तुल्य रखा जाता था । छतें गजपृष्ठाकार रखी जाती थीं । पत्थर का युग आ जाने पर भी वास्तुकार को काष्ठ कला-तत्वों की स्मृति रही, जिसकी छाप हमें १३वीं शताब्दी तक के स्थापत्य व बाद के अलंकरणों में भी दिखाई देती है । काष्ठ में जिन अलंकरणों को आसानी से उकेर कर भव्य बनाया जा सकता है, उन्हें ही पत्थर में उकेर कर अमर बना देने का वास्तुकारों का दृढ़ संकल्प, जैन धर्म व राजस्थान की संस्कृति में गौरव के प्रतिमान बन गये । काष्ठ अलंकरणों को पाषाण पर प्रतिस्थापित करने का सुअवसर राजस्थान में था । अतः इन शताब्दियों में कई स्थानों पर पत्थर के सुन्दर अलंकरण निर्मित हुए, जिन्हें आनू के सर्वोत्कृष्ट उत्कीर्णन की तुलना में भूमिका स्वरूप माना जा सकता है। दरवाजों के ऊपर फूल-पत्तियों के अलंकरण तथा मन्दिर के विविध भागों, स्तम्भों आदि पर काष्ठ तुल्य सुन्दर नक्काशो देखने को मिलती है । ओसियां के मन्दिर का तोरण व इस काल के मन्दिरों के अनेक स्तम्भ
१. हीरालाल जैन, भा० सं० में जैनधर्म का योगदान, पृ० ३२१ ।
२. वही, पृ० ३२२ ॥
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