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________________ जैन कला : ३०७ उत्कृष्ट तक्षण के प्रतीक हैं, किन्तु इससे मन्दिर की सादगी, पवित्रता, महानता और सात्विकता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। छोटी संरचना व कम ऊँचे शिखरों में भी ये धार्मिक मूल भावों की अभिव्यंजना करते रहे । जीर्णोद्धारों व मरम्मत से अधिकांश मन्दिरों का मूल स्वरूप परिवर्तित हो गया है, किन्तु स्थापत्य की मूल विशेषताएं लुप्त नहीं हुई हैं। इस काल के मन्दिर स्थानीय रूप से प्राप्त सामग्री से ही बनाये जाते रहे । अर्बुद क्षेत्र में विविध प्रकार के इमारती पाषाण के भण्डार हैं । पूर्वी राजस्थान को छोड़कर राजस्थान में विविध क्षेत्रों में भिन्न रंगों वाला, शिल्प के अनुकूल प्रस्तर सुगमता से उपलब्ध हो जाता है । भारी होने के कारण इनका स्थानीय प्रयोग अधिक हुआ। अतः विविध क्षेत्रों के जैन मन्दिर, स्थापत्य की एकरूपता लिये हुए भी अपने भूमिज व निजी स्वरूप के परिचायक हैं। बहुत से मन्दिरों के शिखरों की संरचना में ईंटों का कुछ प्रयोग हुआ है, अन्यथा ऐसा भी देखने को मिलता है कि गढ़े हुए, बिना किसी संयोजन सामग्री के, प्रस्तर एक के ऊपर एक स्थापित कर दिये गये। जैन मन्दिर, शैली संयोजन व निर्माण में समकालीन वैष्णव व ब्राह्मण मन्दिरों से पूर्ण भिन्न नहीं हैं, किन्तु जैनाचार्यों की प्रेरणा से जैन धर्मावलम्बियों द्वारा बनवाये गये थे, अतः स्वतन्त्र अध्ययन के विषय हो जाते हैं। राजस्थान में प्राचीन नगरों में इन शताब्दियों के असंख्य जैन मन्दिर विद्यमान रहे,' किन्तु स्थापत्य के प्रतिनिधि या उदाहरण स्वरूप कुछेक को ही चुना गया है, ताकि स्थापत्य की विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा सके । इन शताब्दियों के स्थापत्य के प्रतीक कई जैन मन्दिर हैं । प्रतिहार शासकों के काल में कई जैन मंदिर निर्मित हुये। "कुवलयमाला" की प्रशस्ति से इस तथ्य की पुष्टि होती है। हरिभद्र के साहित्य से ८वीं शताब्दी में चित्तौड़ में, पद्मनन्दि की "जम्बूद्वीप पण्णति" से बारा क्षेत्र में, कई मन्दिरों के अस्तित्व का पता चलता है । ७८३-८४ ई० में प्रतिहार वत्सराज के शासनकाल में निर्मित ओसियाँ का जैन मन्दिर इस काल के स्थापत्य का सम्पूर्ण प्रतीक है । यह मन्दिर एक घेरे के बीच में स्थित है। घेरे से सटे हुए अनेक काष्ठ हैं । मुख्य मन्दिर में गर्भगृह, सभा मण्डप व खुला बरामदा है, जिसके ठीक सामने एक अलंकृत तोरण है । इसके अतिरिक्त जीने के ऊपर निर्मित करवाया गया नल मण्डप है, जो दोनों तरफ से घिरा हुआ है। इसमें पीछे की तरफ छोटे देवालयों की पंक्ति है । नल मण्डप और देवालय १०वीं शताब्दी में निर्मित हुये प्रतीत होते हैं। १. देखें-एसिटारा। २. जबिउरिसो, १९२८, मार्च, पृ० २८ । ३. जैसाऔइ, पृ० ५७१ । ४. आसइएरि, १९०८-०९, पृ० १०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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