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जेन कला : ३०५ घुड़सवार भी उल्लेखनीय हैं। देश के विभिन्न भागों से यहाँ कलाजीवी आते थे और विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बनाते थे । (स) जैन स्थापत्य कला :
वास्तुकला ने मन्दिरों के निर्माण में ही अपना चरम उत्कर्ष प्राप्त किया है। राजस्थान के जैन मन्दिर शान्त, सात्त्विक, पवित्र भावनाओं के उद्गाता, साहित्य के संरक्षक, साधना के केन्द्र स्थल होने के साथ ही अपने उत्कृष्टतम स्थापत्य, शिल्प वैभव व महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक भूमिका के लिये विख्यात रहे हैं । (१) पूर्व मध्यकाल : (क) ८वीं से १०वीं शताब्दी के जैन स्थापत्य प्रतिमान एवं विशेषताएं:
जैन परम्परा की कतिपय उत्तरवर्ती परम्पराओं, साहित्य, पश्चात्वर्ती अभिलेखों, ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक भग्नावशेषों एवं प्रमाणों से ज्ञात होता है कि राजस्थान में मंगथला', घंघाणी२, नाडलाई३, कुंभलमेर, बडली", केशोरायपाटन आदि कई स्थानों पर ८वीं शताब्दी के पूर्व जैन मन्दिर अस्तित्व में रहे होंगे, किन्तु हणों के आक्रमण या बारम्बार के जीर्णोद्धार के कारण उनकी स्थापत्य कला या काल का अनुमान लगाना कठिन है । ८वीं शताब्दी के मन्दिरों से ही जैन स्थापत्य के विशिष्ट स्वरूप, हमें अपनी समस्त विशेषताओं के साथ दृष्टिगत होते हैं । ___ जैन मन्दिरों का निर्माण धनी श्रेष्ठी वर्ग या राज्य में उच्च पदासीन अधिकारियों द्वारा धार्मिक भावना से प्रेरित होकर करवाया जाता था। जीवन की अन्य गतिविधियों की तरह यह भो मोक्ष का एक साधन था। मन्दिर पूजा, उत्सव व धर्म साधना के केन्द्र माने जाते थे, अतः जैन लोग एतदर्थ सुरक्षित एकांत या पार्थक्य चाहते थे। सभी कालों के स्थापत्य में यह तथ्य स्पष्ट दिखाई देता है।
इन शताब्दियों या इससे पूर्व निर्मित सभी जैन मन्दिर मूलतः स्थापत्य की नागर शैली के ही है । नागर शैली का शिखर गोल होता है, जिससे अग्रभाग पर कलशाकृति बनाई जाती है । प्रारम्भ में इसका शिखर सम्भवतः गर्भगृह के ऊपर ही रहा होगा, किन्तु क्रमशः उसका इतना विस्तार हुआ कि समस्त मन्दिर की छत इसी प्रकार की बनाई जाने लगी। यह शिखराकृति औरों की अपेक्षा अधिक प्राचीन व महत्त्वपूर्ण मानी
१. अप्रजैलेस, क्र० २४८ । २. भपापइ, पृ० २७३ । ३. नाजैलेस, क्र० ८५६ । ४. टॉड, एनल्स, २, पृ० ६७०-७१ । ५. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० २ ।
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