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________________ ३०४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं राजस्थान के जैन धातु मूर्ति कला केन्द्र : यहाँ से धातु प्रतिमाएँ राजस्थान में डूंगरपुर और अर्बुद क्षेत्र इसके प्रमुख केन्द्र थे । पश्चात्वर्ती काल में प्रतिमा ढलाई अन्यत्र भी प्रारम्भ हुई, किन्तु पूर्व मध्यकाल जैसा कलात्मक वैभव उनमें नहीं आ पाया । राजस्थान में धातु प्रतिमाओं का इतिहास आहड़ सभ्यता से ही जुड़ा हुआ है | आहड़ के उत्खनन में तीर्थंकर की एक पद्मासनस्थ मूर्ति, काँसे की ढलाई के उपकरण तथा भट्टियाँ मिली हैं ।" आहड़ के पश्चात् धातु प्रतिमाओं की ढलाई का सबसे बड़ा केन्द्र बसन्तगढ़ था, जो सिरोही एवं मेवाड़ की सीमा पर अवस्थित है । कालान्तर में यह उजाड़ हो गया। बाद में खुदाई करने पर मिलीं, जिन्हें लोगों ने तोड़-फोड़ दिया । बसन्तगढ़ शैली की विधान से ढाली गई प्रतीत होती हैं । इन्हें दो प्रकार से पोला । ठोस ढलाई के लिये प्रतिमा का मोम का प्रतिरूप बनाकर उस पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर सुखा दिया जाता था । एक छेद से धातुद्रव मूर्ति में उँडेला जाता था, जिससे एक ठोस धातु प्रतिमा बन जाती थी । पोली प्रतिमाएँ बनाने के लिये किसी प्रतिरूप पर मिट्टी के लेप के बाद मोम की परत चढ़ाकर फिर उस पर मिट्टी का लेप चढ़ा दिया जाता था एवं एक छेद से गरम धातु उँडेल दी जाती थी । इस प्रकार मोम की परत का स्थान धातु ले लेती थी और एक पोली धातु प्रतिमा तैयार हो जाती थी । यह मूर्तियाँ मधुच्छिष्ट ढाला जाता था— - ठोस एवं बसंतगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं का प्रभाव सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात एवं मध्य भारत के मालवा क्षेत्र की धातु प्रतिमाओं में दिखाई देता है । 3 सिरोही जिले के धातुविदों के अनुसार ये प्रतिमाएँ १२वीं शताब्दी तक बसंतगढ़ में, उसके पश्चात् उदयपुर, सिरोही, सादड़ी, पिंडवाड़ा, आबू, जावाल, गराडा एवं देलदर आदि गाँवों में ढाली जाती रहीं, क्योंकि बसंतगढ़ का पतन हो चुका था तथा यहाँ के कलाकार आसपास के गाँवों या गुजरात में चले गये थे । बसंतगढ़ के पश्चात् आबू धातु कला का केन्द्र बना, क्योंकि यहाँ १२वीं से १७वीं शताब्दी तक निरन्तर मन्दिर बनते रहे या उनमें काम होता रहा । इसलिये आबू शिल्प कर्मियों का केन्द्र ही गया था । अचलगढ़ के आदीश्वर मन्दिर की कोठरी में काष्ठ की ४ सुन्दर मूर्तियाँ हैं, जो शायद ढलाई के लिये मॉडल के रूप में प्रयुक्त होती होंगी । अचलगढ़ में ही डूंगरपुर के शिल्पियों द्वारा, २११ मन प्रत्येक के वजन वाले तीन १. अग्रवाल, प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ की देन, लेख | २. शाह - जैन ब्रोंजेज - ए ब्रीफ सर्वे, पृ० २७३ । ३, असावे, पृ० ४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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