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जेन काल : ३०३
१४. हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां :
कई जैन मन्दिरों में, हिन्दू देवी-देवताओं, यथा राम, कृष्ण, हनुमान, शिव, गणेश, भैरव आदि तथा देवियाँ, जैसे-सीता, लक्ष्मी, दुर्गा आदि की प्रतिमाएं भी देखने को मिलती हैं, जो जैन मतावलम्बियों की धार्मिक सहिष्णुता, उदारता एवं सर्व धर्म सम-भाव को प्रतीक है। ओसियाँ के सच्चिका माता के मन्दिर के प्रांगण में स्थित प्रतिहार कालीन सूर्य मन्दिर के पिछले बाह्य मंडोवर पर पार्श्वनाथ की मूर्ति का अंकन, इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। आबू के विमल वसहि में कृष्ण जन्म, दधिमंथन, रास-लीला आदि के दृश्य हैं। साँगानेर के सिंघी जैन मन्दिरों के स्तम्भों पर रास-लीला एवं कृष्ण के विभिन्न रूपों का अंकन इसी परम्परा में हुआ है । राजस्थान के जैन प्रस्तर मूर्ति कला केन्द्र :
राजस्थान की समृद्ध जैन मूर्ति कला के पीछे स्थानीय शिल्पियों एवं संगतराशों की सतत् साधना रही है । ये शिल्पकार बाहर से नहीं आये, अपितु इस धरती की ही उपज थे, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष भाव से जैन धर्म के इन अतीव कलात्मक प्रतिमानों का सृजन किया । पूर्व मध्यकाल से ही अबुदमण्डल शिल्पकारों का गढ़ रहा, क्योंकि इस काल में वहाँ स्थापत्य एवं शिल्प के नानाविध आयाम चरमोत्कर्ष पर पहुँचे । चन्द्रावती नगरी का शिल्प वैभव, आबू के मन्दिरों की उत्कृष्ट तक्षण कला, मीरपुर, वरमाण व सिरोही की अनेकानेक मूर्तियों की रचना, निश्चित रूप से स्थानीय प्रतिभाओं ने ही सम्पन्न की। इस युग में सोमपुरा, गुरासाँ-चित्रकार आदि सिलावट जातियाँ, यही कर्म करती थीं। अबदमण्डल में आब, सिरोही, पिंडवाड़ा, बसन्तगढ़, चन्द्रावती, मीरपुर के अतिरिक्त पश्चिमी राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, पूर्व में जयपुर और दक्षिणी राजस्थान में चित्तौड़ क्षेत्र पाषाण कलाकारों के प्रमुख केन्द्र थे। जयपुर नगर निर्मित होने के पूर्व आमेर, बहुत बड़ा शिल्प केन्द्र था । विविध प्रकार के पाषाणों पर मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। मकराना का श्वेत संगमरमर, डूंगरपुर का काला पत्थर, झीरो और बलदेवगढ़ के सफेद पत्थर से भी मूर्तियां बनाई जाती थीं। रंगीन व पॉलिश की मूर्तियों के लिये अलवर की सीमा पर स्थित रियालों का संगमरमर काम में लिया जाता है, क्योंकि इसमें हल्की नीली झाँई होती है । मूर्तिकारों के औजार अभी भी पुराने ही है । अबुद क्षेत्र में स्थानीय पाषाण विपुल मात्रा में उपलब्ध है । आरासन का पत्थर इस दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता था। चित्तौड़ के सूत्रकार मण्डन ने अपनी कल्पनाओं एवं शास्त्रीय ज्ञान के नैपुण्य को रणकपुर की मूर्तियों में प्रदर्शित किया है । जैसलमेर क्षेत्र में पोले प्रस्तर पर रेगिस्तान के मध्य भी स्थानीय शिल्पकारों ने अनुपम तक्षण की सरिता प्रवाहित कर दी है। इन क्षेत्रों से मूर्तियाँ राजस्थान के विभिन्न कोनों में ही नहीं, अपितु बाहर भी भेजी जाती थीं।
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