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२६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महेन्द्र सूरि के द्वारा सम्पन्न हुई । मन्दिर निर्माण में श्वेत और पीले संगमरमर का अच्छा सामंजस्य है । स्थापत्य पर कुछ अंशों में मुगल प्रभाव दृष्टिगत होता है । गवाक्ष, तिबारियाँ, बरामदों आदि पर उत्कीर्ण अलंकरण मनमोहक है । यहाँ रंगमंडप की जगह अलंकरण युक्त बरामदा है। इन मन्दिरों की सुन्दर शिल्पकला के विषय में पूर्ण चन्द्र नाहर ने लिखा है, "विशाल मरुभूमि में ऐसा मूल्यवान भारतीय शिल्प कला का नमूना दर्शनीय वस्तुओं की गणना में रखा जा सकता है।" मन्दिर में प्रशस्ति के अतिरिक्त पीले पाषाण पर उत्कीर्ण एक दीर्घकाय शिलालेख है।' (ख) ब्रह्मसर के जैन मन्दिर : __ ब्रह्मसर, जैसलमेर से ८ मील उत्तर में रामगढ़ सड़क पर स्थित है । इस गाँव में मुनि मोहन लाल की आज्ञा से बागरेचा अमोलक चन्द के पुत्र माणक लाल ने महारावल बेरीसाल के समय में १८८७ ई० में पार्श्वनाथ का सुन्दर मन्दिर बनवाया, जो कलात्मक दृष्टि से दर्शनीय व तीर्थ यात्रियों के लिए वन्दनीय है। (ग) देवीकोट के जैन मन्दिर :
बाड़मेर जाने वाली सड़क पर यह स्थान जैसलमेर से २४ मील दूर दक्षिण पूर्व में स्थित है । अन्य स्थानों की तरह यह भी काफी प्राचीन है । यहाँ श्री संघ की ओर से बनवाया गया आदिनाथ का सुन्दर मन्दिर है, जो १८०३ ई० में महारावल मूलराज के राजत्वकाल में निर्मित हुआ। (घ) बरसलपुर के जैन मन्दिर :
जैसलमेर से १४० मील तथा बीकानेर से ९२ मील दूर, यह एक प्राचीन नगर है । यहाँ लक्ष्मीनाथ मन्दिर के साथ ही पार्श्वनाथ मन्दिर है और दोनों को भोग एक ही साथ लगाया जाता है । लक्ष्मीचन्द सेवक ने जैसलमेर तवारीख के पृ० १८६ पर लिखा है, "मन्दिर एक में श्री लक्ष्मीनाथ जी व श्री पारसनाथ जी सामल विराजे व आरोगे हैं, जुदा करे तो विघ्न हुवै ।" वैष्णव व जैन धर्म समन्वय का यह अनूठा उदाहरण है।
१. जैसंशो, प्रथम खंड, पृ० १०८-१११ । २. जैसलमेर दिग्दर्शन, पृ० १६ । ३. वही, पृ० १७॥ ४. वही, पृ० १८ ।
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