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अध्याय पंचम
जैन कला प्रत्येक काल, क्षेत्र, धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसी मौलिक विशेषताएं होती हैं, जिससे कला का अपना एक निजी आयाम निर्मित होता है। राजस्थान में जैन कला, असंख्य स्थानीय कलाकारों एवं राजनीतिक परिस्थितियों, मूलतः धर्मान्ध मुस्लिम आक्रमणों के कारण, गुजरात आदि निकटस्थ क्षेत्रों से राजपूतों के संरक्षण में आये श्रावकों, वास्तुकारों, मूर्तिकारों और चित्रकारों के द्वारा, स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं, जैनधर्म को मूल मान्यताओं, राजकीय प्रश्रय एवं जैनाचार्यों के सत्प्रयासों के फलस्वरूप, अपना निजी गौरव लिये हुये विकसित हुई। राजस्थान के सांस्कृतिक वैभव की निर्मिति में जैन कला का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो मन्दिर, शिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला के जैनाश्रित विविध रूपों में दृष्टिगत होती है। यद्यपि मुस्लिम विध्वंस का आक्रामक प्रहार कला प्रतिमानों पर भी हुआ है, फिर भी बहुत कुछ जैनाचार्यों की सूझ-बूझ के परिणाम स्वरूप निर्मित शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित है और जीर्णोद्धार कराये गये मन्दिर भी आंशिक रूप से पुरातन परिचय दे देते हैं। कई मन्दिरों में बहुमूल्य व कलात्मक मूर्तियों के संग्रह भी हैं। (अ) जैन चित्रकला :
भारतीय चित्रकला की ऐतिहासिक परम्परा का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है. कि १०वीं शताब्दी के पूर्व गुफा चित्रों या भित्ति चित्रों का निर्माण होता था। भित्ति चित्रों की कला के पश्चात् १०वीं या ११वीं शताब्दी से ताडपत्रीय चित्रों के रूप में जैन लघु चित्र शैली विकसित हुई। इस चित्रशैली के नामकरण के सम्बन्ध में मतभेद हैं । नार्मन ब्राउन ने इसे "श्वेताम्बर जैन शैली" कहा है, क्योंकि उनके मतानुसार इसका प्रयोग श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में ही हुआ है तथा आँख को निकली हुई अंकित करने का कारण, सम्भवतः इस सम्प्रदाय में प्रचलित तीर्थंकर मूर्तियों में कृत्रिम आँख लगाना है । डॉ० कुमारस्वामी ने इसे "जैन कला" तथा एन० सी० मेहता ने "गुजराती शैली" कहा है। राय कृष्णदास के मतानुसार इस शैली में भारतीय चित्रकला का ह्रास दिखाई देता है और ये चित्र "कुपड़" चित्रकारों के बनाये हुये हैं। इस कला को इस काल में विकसित हुई भाषा के अनुसार "अपभ्रंश शैली" की संज्ञा दी गई, किन्तु १. रायकृष्ण दास-भारत की चित्रकला, पृ० २९ । २. वही, पृ० २९ ।
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