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________________ १० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लाखा के राज्य में जावर के उन्नति करने एवं देलवाड़ा (मेवाड़) के श्रेष्ठी कान्हा द्वारा "वीर विहार" व शान्तिनाथ मन्दिर निर्मित करवाने का उल्लेख है । १४९९ ई० की एक अप्रकाशित बृहत् प्रशस्ति के १२७वें श्लोक में, इसके रचयिता साधु राजशील का नाम है, जो अगरचंद नाहटा के अनुसार बाद में आचार्य पद पाने पर राजरत्न सूरि कहलाये। इसमें मेवाड़ के राजाओं तथा जन चैत्य निर्माता मन्त्री के वंश का विवरण होने के साथ-साथ खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा की आचार्य परम्परा का भी अच्छा विवरण मिलता है। इस प्रशस्ति के अनुसार, इस शाखा के प्रवर्तक जिनवर्द्धन सूरि के पट्टधर जिनचंद्र सूरि हये थे । उन्हीं के समय में १४९९ ई० में यह प्रशस्ति रची गई । “अष्टसप्ततिका", चित्तौड़ के मन्दिर की एक अन्य प्रशस्ति है, जिसमें खरतरगच्छ एवं चैत्य परिपाटी के विषय में पता चलता है। इस प्रकार अन्यान्य कई प्रशस्तियाँ जैनधर्म और भारतीय साहित्य के इतिहास निर्माण के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। (४) पट्टावलियां : ये भी इतिहास निर्माण की विश्वसनीय स्रोत हैं। जैन पट्टावलियों से, जैन गुरु परम्परा एवं धार्मिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। साथ ही इनसे कई राजाओं के नाम, नगरों के वर्णन, व्यापारिक स्थिति आदि पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है । महत्त्वपूर्ण पट्टावलियां-खरतरगच्छ पट्टावली, तपागच्छ पट्टावली, मूलसंघ पट्टावली, भट्टारक पट्टावली, नन्दिसंघ पट्टावली आदि हैं। इनमें विभिन्न जातियों एवं गोत्रों के उत्पत्ति विषयक वर्णन भी हैं। खरतरगच्छ पट्टावली से ही पता चलता है कि कई माहेश्वरी परिवारों को जैन धर्म में दीक्षित किया गया था। उपकेशगच्छ पट्टावली ओसियाँ के बारे में तथा कोरंटगच्छ पट्टावली कोरटा के बारे में उपयोगी जानकारी देती हैं। इन पट्टावलियों में जैन गुरुओं के धार्मिक कृत्यों के सम्बन्ध में तो तथ्य प्राप्त होते ही हैं, साथ ही तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी भी प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, जिनपाल उपाध्याय की "खरतरगच्छ बृहद गुर्वावली" में अर्णोराज, पृथ्वीराज, समरासिंह, जैसलमेर के कर्णदेव तथा सुल्तान कुतुबुद्दीन का भी वर्णन है । प्रसंगवश ११वीं से १४वीं शताब्दी तक के अन्य ऐतिहासिक विषयों की भी इसमें चर्चा की गई है। डूंगरपुर से प्राप्त एक प्राचीन पट्टावली में १. शोप वर्ष ३७, अंक २, अप्रैल-जून १९८६, रामबल्लभ सोमानी का लेख हरिकलश की तिथि, पृ० ३८ । २. सोमानी, वीरभूमि चित्तौड़, पृ० २७१-२७५ । ३. एसिटारा, पृ० १६ । ४. इए, जि० २०, इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटरली, जि० २६, पृ० २३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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