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२५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
श्रेष्ठी परिवार ने इस स्थान को त्याग दिया । धीरे-धीरे सारा जेन समाज यहाँ से स्थानान्तरित हो गया व तीर्थ की व्यवस्था को बहुत आघात पहुँचा । अब जैन साधु एवं साध्वियों के प्रयासों से यह तीर्थं पुनः उत्कर्ष पर है ।" सैकड़ों खंडहर अपने प्राचीन वैभव, शिल्प एवं निर्माण की कहानी बता रहे हैं । "
नाकोड़ा जैन तीर्थ की परिधि में ३ विशाल शिखरधारी जैन मन्दिर, कई छोटे देव गुम्बज एवं दो वैष्णव मन्दिर विद्यमान हैं । सबसे प्राचीन पार्श्वनाथ जिन मन्दिर है, जिसमें विनाश व जीर्णोद्धार का सतत् क्रम चलता रहा । महावीर प्रतिमा के स्थान पर इसमें १३७२ ई० में पार्श्वनाथ प्रतिमा स्थापित की गई । जनश्रुति के अनुसार, जिनदत्त नामक श्रावक ने नाकोर के पास से स्वप्न के आधार पर १३" श्यामवर्णी पार्श्वनाथ प्रतिमा जमीन से खोद कर प्राप्त की । मन्दिर तीर्थोद्धारक, आचार्य कीर्तिरत्न सूरि की पीले पाषाण की प्रतिमा, १४७९ ई० के अभिलेख सहित मन्दिर में प्रतिष्ठित है । पार्श्वनाथ मन्दिर का शिखर विशाल एवं भव्य है । मन्दिर में गूढ़ मंडप, सभामण्डप, नवचौकी, शृंगार चौकी, झरोखें आदि हैं, जो सभी साधारण हैं । इन्हें अब संगमरमर की बारीकियों का बाना पहनाया जा रहा है । मूलनायक प्रतिमा के आसपास उसी आकार की दो श्वेत संगमरमर पार्श्वनाथ प्रतिमाएँ | तीर्थं अधिष्ठायक देव, भैरव की प्रतिमा सुन्दर एवं कलात्मक है, जिसके चमत्कारों से भी तीर्थ की ख्याति निरन्तर बढ़ रही है । पास में ही जैन पंचतीर्थी, प्रतिमाओं की शाल एवं दो भूमिगृह भी हैं । मन्दिर में निर्माण सम्बन्धी १५८१ ई०, १६१० ई०,५१६२१ ई०, १६२५ ई० एवं १८०७ ई० तथा १८०८ ई० के प्राचीन शिलालेख हैं । पार्श्वनाथ मन्दिर के पीछे आदिनाथ का मन्दिर है, जो शिल्पाकृतियों का खजाना है । इस मन्दिर का निर्माण वीरमपुर निवासी मालाशाह की बहन लाछी बाई ने करवाकर १४५५ ई० में प्रतिष्ठा करवाई । पहले मूल नायक प्रतिमा विमलनाथ की थी, किन्तु अब संप्रति कालीन आदिनाथ प्रतिमा है । मन्दिर के शिखर एवं मण्डप शिल्पकला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं । यहाँ भारत-पाक विभाजन के समय सिंध प्रदेश के हालानगर से लाई गई प्रतिमाएँ भी भूमिगृह में हैं । इस मन्दिर में १४५५ ई०, १५०५ ई०, १५७५ ई० एवं १५९० ई० के शिलालेख हैं । तीसरा
१. वीनिस्मा, १९७५, पृ० २-२३ ।
२. वही, पृ० २ - २१ ।
३. वही, पृ० २ २३ । ४. वही ।
५. प्रोरिक्षासवेस, १९१२, पृ०५५ ।
६. वोनिस्मा, १९७५, पृ० २ - २२ ।
७.
वही ।
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