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जैन तीर्थ : १५७ (४) नाकोड़ा पाश्वनाथ तीर्थ (नगर):
यह श्वेताम्बर जैन तीर्थ पूर्व मध्यकालीन बस्ती "नगर" जो मारवाड़ रियासत के मालाणी जिले के जसोल गाँव से ५ कि० मी० दक्षिण-पूर्व में स्थित है। नगर का प्राचीन नाम "महेवा" और "वीरमपुर" मिलता है । पार्श्वनाथ की प्रतिमा यहाँ स्थापित होने के बाद से ही यह “नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ" कहलाने लगा और नगर नाम लुप्त सा हो गया । नाकोड़ा स्थल का प्राचीन इतिहास अनुश्रुतियों पर आधारित है, जिसके अनुसार इसका उदय ईसा से ५४ वर्ष पूर्व एवं वीरम दन्त तथा नाकोरसेन भ्राताओं द्वारा क्रमशः वीरमपुर एवं नाकोर नगरों की स्थापना करने पर हुआ था। आचार्य स्थूलिभद्र ने वीरमपुर में चन्द्रप्रभु को एवं नाकोर में सुविधिनाथ की जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई तथा वीर निर्वाण संवत् २८१ में सम्प्रति, वीर निर्वाण संवत् ५०५ में उज्जैन के विक्रमादित्य, वीर निर्वाण संवत् ५३२ अर्थात् ५ ई० में मानतुंगसूरि ने इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया ।५ ३५८ ई० में आचार्य देव सूरि ने वीरमपुर व ३६४ ई० में नाकोर में जीर्णोद्धार करवा कर प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई। इसके बाद ८५२ ई० में, वीरमपुर निवासी तातेड़ गोत्रीय सेठ हरकचन्द्र ने जीर्णोद्धार करवाकर महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा कराई। इसके बाद मुगल आक्रमण के भय से मूर्तियों को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया और ११७६ ई० में वीरमपुर सकल संघ ने पुनः प्रतिष्ठा करवाई। १२२३ ई० में आलमशाह ने दोनों नगरों का भयंकर विध्वंस किया, तब सुरक्षार्थ प्रतिमाओं को दो मील दूर कालीदह-नागदह पहाड़ी में ले जाकर छुपाया गया ।' कालक्रम के साथ स्थान के नाम भी वीरमपुर, महेवा, महेवान नगर, मेवा नगर एवं नाकोड़ा पार्श्वनाथ के रूप में बदलते रहे। १५वीं शताब्दी में यह पुनः आबाद हुआ तब यहाँ लगभग २७०० जैन परिवार थे, किन्तु आज केवल मन्दिर एवं परिसर क्षेत्र में ही कुछ आबादी है, जिनमें जैन नगण्य हैं । इसका कारण संभवतः यह रहा कि १७वीं शताब्दी में श्रेष्ठी नानक सखलेचा की लम्बी चोटी से स्थानीय शासक के पुत्र ने अपने घोड़े का चाबुक बनाने की ठानी। अपमानित अनुभव करके
१. एसिटारा, पृ० ४३१ । २. वही । ३. वही, पृ० ४३२ । ४. वीनिस्मा, १९७५, पृ० २-२१ । ५. वही। ६. वही । ७. वही। ८. वही।
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