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________________ २५६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म है-'तोपखाना तो पड़ा रहा ने, राव सदाशिव भाग गया।" कहा जाता है कि प्रतिमा यहाँ से २० कोस दूर जंगल में एक मन्दिर में थी। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा इसे तोड़ने का प्रयास करने पर उसकी फौज अन्धी हो गई । एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार महमूद गजनवी के मूर्तिभंजन काल में यह मूर्ति अन्तान हो गई थी। मूलनायक की प्रतिमा का निर्माण काल और इतिहास अत्यन्त विवादास्पद है। "इम्पीरियल गजेटियर ऑफ़ इण्डिया' के अनुसार यह प्रतिमा १३वीं शताब्दी के अन्त में गुजरात से यहाँ लाई गई थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार गुजरात से उज्जैन व उज्जैन से यहाँ लाई गई । मूर्ति का निर्माण काल भी विवादास्पद है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों द्वारा न केवल प्रतिमा निर्माण काल, अपितु मन्दिर निर्माण काल के बारे में भी परस्पर विरोधी तक प्रस्तुत किये जाते हैं । वस्तुतः मन्दिर की संरचना एक ही काल में नहीं हुई, बल्कि भिन्न-भिन्न भागों का निर्माण भिन्न-भिन्न कालों में हुआ, जो मन्दिर में उपलब्ध शिलालेखों में वर्णित है। ___मन्दिर के चारों ओर बावन जिनालय, चारों दिशाओं में निर्मित हैं । प्रत्येक दिशा में एक जिनालय बद्ध है और उसके आगे मण्डप है । प्रत्येक जिनालय में ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा है। पश्चिम में श्याम पाषाण का सहस्रकूट-चैत्यालय बना हुआ है । पूर्व की ओर, निज मन्दिर के समक्ष, ठीक मध्य में एक पाषाण गज व उसके ऊपर गुम्बद बना हुआ है । हाथी के दोनों ओर पाषाण चरण व उनके नीचे चमरवाहक इन्द्र खड़े हैं । निज मन्दिर के समक्ष, पूर्वी प्रवेश मार्ग के ऊपर भरत-बाहुबलि संघर्ष, बाहुबलि सन्यास आदि प्रकरणों का उत्कीर्णन है । मूलनायक की प्रतिमा एक फीट ऊँचे धातु के आसन पर है। चरण चौकी के मध्य दो बैलों के बीच में यक्षी चक्रेश्वरी, हाथी, सिंह, देव आदि भी बने हुए हैं । चरण चौकी पर सोलह स्वप्न अंकित हैं, धातु सिंहासन के दोनों पाश्वों के ऊपर २३ जिन प्रतिमाएं हैं, अतः यह चौबीसो बन गई है। मूलनायक के सिर के ऊपर तीन छत्र व पृष्ठ भाग में प्रभा-मण्डल है । मन्दिर के चारों ओर पक्का परकोटा है। विशाल प्रवेश द्वार के ऊपर नक्कार-खाना व अन्तः भाग में बाह्य परिक्रमा चौक तथा दोनों ओर कृष्ण पाषाण का एक-एक हाथी निर्मित है । ऊपर की छत में ८१ कोष्ठक का एक यन्त्र है, जिसे किसी भी ओर से जोड़ने पर योग ३६९ आता है। अगले द्वार से, दस सीढ़ी चढ़ने पर ९ स्तम्भों वाला मण्डप है, जिसे नौचौकी कहते हैं । यहाँ से तीसरे द्वार में प्रविष्ट होने पर खेला मण्डप व उसके ठीक सामने निज मन्दिर हैं, जिसमें केसरिया जी की विश्व-विश्रुत प्रतिमा है । १. भादि जैती, ४, पृ० १०६-१२६ । २. वही । ३. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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