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जैन तीर्थं : २५५
करना नहीं, अपितु इनकी निरर्थकता बताकर वैराग्य भावना का उदय करना है । इस मन्दिर के बाह्य भाग में एक तहखाना तथा देवकुलिका में नेमिनाथ की श्यामल भव्य मूर्ति है । भीतर से मन्दिर एकदम सादगीपूर्ण, किन्तु बाहर से अत्यधिक अलंकृत हैं । मन्दिर की दीवारें १५वीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं, लेकिन शिखर बाद में निर्मित प्रतीत होता है । इस मन्दिर के निकट ही पार्श्वनाथ मन्दिर है, जिसका मुख्य द्वार पूर्वाभिमुख है। पार्श्वनाथ मन्दिर के निकट महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित सूर्य मन्दिर है, जिस पर विविध देवी-देवताओं को उत्कृष्ट शिल्पांकित प्रतिमाएँ हैं । ' ( ३ ) ऋषभदेव ( केसरिया जी ) तीर्थं :
ऋषभदेव तीर्थ, उदयपुर जिले में, उदयपुर से ६४ किलोमीटर दूर खेरवाड़ा तहसील में, कोयल नामक छोटी-सी नदी के किनारे अवस्थित, धुलेव नामक ग्राम में है, जिसकी जनसंख्या लगभग ५,००० है । मूलनायक के नाम पर गाँव का नाम भी ऋषभदेव तथा केसर चढ़ाने की प्रथा के कारण केसरिया जी प्रचलित है । मूलनायक प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की है । प्रतिमा श्याम वर्ण की होने से भील लोग इसे "" कालाजी " और " कारिया बाबा" कहते हैं । कुछ लोग " धुलेनाथ जी " या केसरिया लाल भी कहते हैं । प्रतिमा पाषाण निर्मित, पद्मासन मुद्रा में एवं साढ़े तीन फीट अवगाहना वाली है । यह समचतुस्र-संस्थान युक्त और अत्यन्त चित्ताकर्षक है । मूलनायक के ऊपर विशाल और भव्य शिखर हैं । इसके अतिरिक्त चारों दिशाओं में ४ शिखर हैं, जो काफी विशाल और उत्तुंग हैं । छोटे-मोटे ४९ शिखर और हैं । मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर अनेक खड्गासन जिन प्रतिमाएँ हैं । इस मन्दिर में कुल ७२ पाषाण की मूर्तियाँ हैं, जिनमें ९-१० श्वेत वर्ण की और शेष श्याम वर्ण की हैं । इस तीर्थ के अधिकार के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों में उग्र मतभेद हैं । यहाँ तक कि इनके मतावलम्बी श्रद्धा भावना एवं अहिंसा के मार्ग से हटकर इस विवाद पर हिंसक भी हो उठे हैं ।
प्रतिमा के नानाविध चमत्कारों की किंवदन्तियाँ जनता में बहुत प्रचलित हैं । इसके चमत्कारों से आकर्षित होकर जैन, अजैन सभी यहाँ मनौती मनाने आते हैं और मुख्यतः मूल नायक को केशर चढ़ाते हैं । सर्वसाधारण में भी केसरिया भगवान् के प्रति अगाध आस्था एवं श्रद्धा है । सम्भवतः यह श्रद्धा अनुभव से उपजी है, जो प्रतिमा के चमत्कारों का जनता पर अत्यधिक प्रभाव प्रदर्शित करती है । चमत्कारों के सम्बन्ध में कई अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं । १८०६ ई० में होल्कर का सेनापति सदाशिव राव लूट मचाता हुआ यहाँ आया, तो मदान्ध होकर उसने मूलनायक को अपमानित करने का प्रयास किया, किन्तु चमत्कारिक रूप से उसे भागना पड़ा । एक लोकोक्ति की पंक्ति इस प्रकार
१. शोप, ७ अंक २-३, पृ० ७-८ । २. भादि जैती, ४, पृ० १०६-१२६ ।
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