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२५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
मन्दिर के दूसरे खण्ड में जाने के लिए सीढ़ियां हैं । इस खण्ड के मध्य भाग में चार तीर्थंकरों की चौमुखी प्रतिमाएँ हैं । इस देवकुलिका के भी ४ द्वार हैं तथा चारों दिशाओं से तीर्थकर के दर्शन किये जा सकते हैं। इसके ऊपर एक और खण्ड है, जिस पर जाने के लिये एक शिलाखण्ड की सीढ़ी है । इस खण्ड में भी, एक ही पोठिका पर आसीन तीर्थंकरों की चौमुखी प्रतिमाएँ हैं । इस देवकुलिका के भी ४ द्वार हैं तथा ऊपर ईंटों से बने ऊँचे शिखर हैं।
इस मन्दिर में कुल २४ मण्डप, ८४ शिखर और १४४४ स्तम्भ हैं । स्तम्भों का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि मन्दिर में कहीं भी खड़े होने पर सामने की दिशा की देवकुलिका की प्रतिमा तथा उस दिशा के स्तम्भ एक पंक्ति में दिखाई देते हैं । प्रत्येक स्तम्भ का अलंकरण दूसरे स्तम्भ से साम्य नहीं रखता तथा सभी स्तम्भों पर विविध अलंकरणों की सूक्ष्म कुराई है । कई स्तम्भों पर तीर्थंकरों के जीवन की प्रसिद्ध घटनाएँ उत्कीर्ण हैं । पश्चिमी द्वार की छत पर ऋषभदेव की माता मरुदेवी की गजारूढ़ प्रतिमा है। मन्दिर में कुल १३ शिलालेख लगे हये हैं, जिनसे विभिन्न देवकुलिकाओं, सभा मंडपों आदि के निर्माण व जीर्णोद्धार का पता चलता है। सबसे महत्त्वपूर्ण शिलालेख १४३९ ई० का है, जिसमें बप्पा से लेकर राणा कुम्भकर्ण तक, मेवाड़ के राणाओं की वंशावली है जो त्रुटिपूर्ण है । लेख संस्कृत गद्य में ४७ पंक्तियों में निबद्ध है । ___मन्दिर में उत्कीर्ण मूर्तियों के अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, रहन-सहन, समकालीन वाद्य यन्त्र एवं अन्य विविध विषयक जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध वास्तु शास्त्री फर्ग्युसन ने इसकी प्रशंसा करते हुये लिखा है, "मैं अन्य ऐसा कोई भवन नहीं जानता जो इतना रोचक व प्रभावशाली हो, या जो स्तम्भों की व्यवस्था में इतनी सुन्दरता व्यक्त करता हो"।' इस मन्दिर की कलात्मकता के सम्बन्ध में एक लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है-“देलवाड़ा री कोतरणी ने राणकपुर री मांडनी।" अर्थात् उत्कीर्ण सौंदर्य के लिये दिलवाड़ा मन्दिर और रचना शिल्प के लिये राणकपुर का मन्दिर अनुपम है।"
चौमुखा मन्दिर के निकट ही नेमिनाथ का मन्दिर है, जिसका प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है, मन्दिर की दीवारों पर नग्न एवं सम्भोगरत युगलों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । साथ ही वात्सायन के कामसूत्र में उल्लिखित विभिन्न आलिंगन मुद्राएँ यथा लता, वैष्टिक आदि भी प्रदर्शित हैं। इसलिये इस मन्दिर को “पातुरियां रो देहरो" (वेश्याओं का मन्दिर) कहते हैं । वास्तव में काम मूर्तियों के अंकन का उद्देश्य, कामवासना जाग्रत १. हिस्ट्री ऑफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, १, पृ० २४०-२४२। । २. तारामंगल, कुंभा, पृ० १७२। ३. जी० एन० शर्मा ने चौमुखा मन्दिर के प्रवेश भाग को वेश्या मंदिर कहा है ।
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