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________________ जैन तीर्थ : २५१ शांतिनाथ मन्दिर है, जो मालाशाह संखलेचा ने १४६१ ई० में अपनी माता की इच्छा से बनवाया था। इसमें दिलवाड़ा के मन्दिरों के समान उत्कृष्ट शिल्प सौंदर्य है ।' ___इस तीर्थ पर जैन सन्त हमेशा आते रहे। १४वीं शताब्दी के विनयप्रभ उपाध्याय ने अपने "तीर्थ यात्रा स्तवन' में इस तीर्थ का उल्लेख किया है । १४२३ ई० में जिनभद्र सूरि यहाँ आये और कीर्ति रत्न सुरि को उपाध्याय की पदवी प्रदान की। कीर्तिरत्न सूरि का जन्म व मृत्यु स्थल यहीं रहा-(१३९२ ई०-१४६८ ई०)। इनके शिष्य कल्याणविजय रचित "कीतिरत्न सूरि विवाहला” और “कीर्तिरत्न सरि चौपाई"इस नगर के मन्दिरों, जनता एवं १५वीं शताब्दी की अन्य धार्मिक गतिविधियों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं। १४७८ ई० में "कल्पसूत्र" की एक स्वर्णाक्षरी प्रति, किसी जैन मुनि को भेंट करने के लिये यहीं पर लिखी गई थी। महिमासमुद्र नामक कवि ने अपने "महेवानगर स्तवन" में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार १५०७ ई० में बताया है । शांति कुशल ने १६१२ ई० में लिखी "गौड़ी पार्श्वनाथ तीर्थमाला" में इस तीर्थ का उल्लेख किया है।४ समय सुन्दर भी इस तीथं से प्रभावित हुए थे।५ १६वीं शताब्दी में इस स्थान पर पल्लीवाल गच्छ बहुत लोकप्रिय था। (५) रावण पाश्र्वनाथ तीर्थ, अलवर : अलवर, जिला मुख्यालय एवं राजस्थान का महत्त्वपूर्ण नगर है। इसकी स्थापना सम्भवतः १०४९ ई० में हुई थी। यहां जैन धर्म काफी लोकप्रिय था । पूर्ववर्ती प्रमाणों के अभाव के कारण, १५वीं शताब्दी से पूर्व स्थान पर जैन धर्म की लोकप्रियता का सही आकलन नहीं हो सकता, किन्तु १५वीं शताब्दी से इस स्थान में जैन धर्म के समृद्ध होने के स्पष्ट प्रमाण हैं। तीर्थमालाओं में अलवर, "रावण पार्श्वनाथ तीर्थ' के रूप में वर्णित है । यहाँ विपुल जैन साहित्य भी सृजित हुआ। यद्यपि यह काल्पनिक ही प्रतीत होता है कि रावण ने कभी यहाँ पार्श्वनाथ की पूजा की होगी, किन्तु इस तथ्य से इस स्थान का जैन धर्म का केन्द्र होने का संकेत मिलता है। १५३१ ई० में अलवर निवासी उपकेश जाति के एक श्रावक ने सिद्धर्षि के द्वारा सुमतिनाथ की एक प्रतिमा स्थापित करवाई थी। १५८९ ई० का एक अभिलेख, जो एक प्रस्तर पट्टिका पर उत्कीर्ण है, में १. वीनिस्मा। २. जैसप्र, १७, पृ० १५ । ३. वही, २०, पृ० ७३ । ४. वही, ५, पृ. ३६६-३६८ । ५. जैन तीर्थ सवं संग्रह, पृ० १८४ । ६. एसिटारा, पृ० ३७९ । ७. नाजलेस, २, सं० १४६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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