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२६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
अलवर में रावण पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाने का उल्लेख मिलता है। इसकी मूर्ति का प्रतिष्ठा महोत्सव, योगिनीपुर के मूल विवासी व बाद में आगरा में बस गये, हीरानंद के द्वारा आयोजित करवाया गया था।'
कुछ साहित्यिक रचनाएं २, जैसे-साधु कीर्ति द्वारा १५६७ ई० में "मौन एकादशी स्तवन", १६४२ ई० में शिवचन्द्र द्वारा "विदग्ध मुख मंडन वृत्ति", १६२५ ई० में लालचन्द्र द्वारा 'देवकुमार चौपई" और १८२१ ई० में विनयचन्द्र द्वारा "महिपाल चौपई" अलवर में ही रची गई थीं। जैन सन्तों की प्रेरणा से कई हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियां भी तैयार की गई। ( ६ ) जावर तीर्थ :
जावर की प्रसिद्धि जस्ते व चाँदी की खानों के अतिरिक्त, जैन तीर्थ के रूप में भी रही है । महाराणा लाखा के काल में यह नगर जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । १४२१ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ पर प्राग्वाट जाति के नाना ने शांतिनाथ का एक मन्दिर निर्मित करवाया था। इस मन्दिर का प्रतिष्ठा समारोह तपागच्छाचार्य सोमसुन्दर सूरि के द्वारा संपन्न करवाया गया था। अभिलेख में प्रतिष्ठा महोत्सव के भव्य रूप से संपन्न होने एवं अनेक आचार्यों के भाग लेने का उल्लेख है। अभिलेख में प्राग्वाट नाना और उसके पुत्र रत्ना द्वारा चित्तौड़, शत्रुजय, गिरनार, आबू, जीरावला आदि की तीर्थ यात्राओं का भी वर्णन है । १४३३ ई० में इस मन्दिर में एक देवकुलिका निर्मित करवाई गई, जिसका वास्तुकार सहदेव और निर्माता श्रेष्ठी कान्हा था। इसी वर्ष के एक अन्य अभिलेख में खरतर गच्छ के जिनसागर सूरि का उल्लेख है। १४३६ ई. के एक छोटे अभिलेख में क्षमामूर्ति, विवेकहंस, उदयशील गणि, मेरु कुंजर आदि जैनाचार्यों के यहां आने का उल्लेख है। इसी प्रकार पद्मशेखर सूरि और धर्मघोष गच्छ के हरिकलश तथा अन्य विख्यात जैनाचार्य १४३८ ई० में इस तीर्थ पर आये थे।" १४४० ई० में रत्नचन्द्र सूरि अपने शिष्यों के साथ इस तीर्थ के मूलनायक की पूजाअर्चना हेतु आये थे । इस प्रकार मध्यकाल में परम्परागत तीर्थ यात्राओं के एक महत्त्व
१. एरिराम्युअ, १९२०, क्र० १५, पृ० ४ । २. अरावली, १, क्र० ९२।। ३. नाजैलेस, २, क्र० १४६४ । ४, वीरविनोद, भाग १, परिशिष्ट । ५. प्राजैलेस, १। ६. इए, ए० रि०, १९५६-५७, पृ० ५१७ । ७. वही, पृ० ५२२।
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