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________________ जेन काल : ३१९ के पूर्ववर्ती अनुभवों पर आधारित है । इन मन्दिरों में अधिष्ठान, देवकुलिकाएँ, अंग शिखरों के समूह से युक्त शिखर, स्तम्भों पर आधारित मण्डप, गवाक्ष आदि प्रमुख भाग होते हैं । मध्य में केन्द्रवर्ती वर्गाकार गर्भगृह युक्त इन मन्दिरों की विन्यास रूपरेखा की विशदता ने, एक नये रूपाकार को जन्म दिया है । इस प्रकार के मन्दिर जैनों में प्रायः "चौमुख के नाम से जाने जाते हैं, जो भारतीय वास्तु विद्या विषयक ग्रन्थों में उल्लिखित " सर्वतोभद्र" प्रकार के मन्दिरों के सामान्यतः अनुरूप हैं। रणकपुर का मन्दिर इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । "वास्तुसार" के लेखक ने मन्दिर की नागर शैली को पश्चिम भारतीय रूप में रूपान्तरित करते हुये, उसकी विन्यास रूपरेखा तथा ऊँचाई के विस्तार का प्रतिपादन किया है ।" इस ग्रन्थ के अनुसार मन्दिर का अन्तर्भाग गर्भगृह कहलाता था । गर्भगृह के आगे अक्षीय रेखा पर स्थित तीन मण्डप होते थे । इन तीनों मण्डपों में पहला मण्डप गूढ़ मण्डप कहलाता था, जो एक कक्ष का काम करता था । इसके उपरान्त मध्य भाग में एक बड़ा कक्ष होता था, जिसे रंग मण्डप, नवरंग या नृत्य मण्डप कहते हैं, जिसमें नृत्य एवं नाटकीय कलाओं के प्रदर्शन किये जाते थे । तीसरा मण्डप बलन मण्डप या मुखमण्डप कहलाता था, जो प्रवेश मण्डप होता था । इसी प्रकार लंबरूप धुरी के आधार पर मन्दिर के तीन भाग होते थे । मन्दिर का निचला आधार भाग अधिष्ठान कहलाता था, मध्य भाग मण्डोवर तथा ऊपरी भाग शिखर होता था, जो आमलक से मण्डित होता था । इसके अतिरिक्त भी इस ग्रन्थ में प्रासाद पीठ, जगती पीठ, तल घर, शिखर के विभिन्न भाग तथा मण्डोवर भाग की संरचना का विवरण किया गया है और इसके लिये विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है । ૨ इसके अतिरिक्त भी इस काल में स्थापत्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गये थे । मण्डन सूत्रधार विरचित " प्रासाद मण्डन" में चतुर्मुख जिन प्रासादों का निर्माण अतीव कल्याणकारी व सुखकारक बताया गया है । अतः इस काल में चतुर्मुख जिन प्रासादों का निर्माण अधिक हुआ । इन मंदिरों के शिल्पी अबुद मण्डल के वास्तुकारों के सम्बन्धी ही थे । अतः प्रस्तर पर काष्ठ-तक्षण जैसी निपुणता दिखाने में ये भी प्रवीण थे, किन्तु शताब्दियों के अन्तराल से इस तक्षण में वैसी प्रभावोत्पादकता नहीं रह पाई । मुगल वास्तु के प्रभाव से भी मूल शास्त्रीय स्थापत्य मानदण्डों को कुछ परिवर्तित होना पड़ा । चतुर्मुख एवं समवसरण शैली के मन्दिर : इस काल में जैन स्थापत्य की नवीन शैली प्रारम्भ हुई, जो हिन्दुओं के चतुर्मुख शिवलिंग की नकल या सूत्रधार मण्डन के ग्रन्थ का प्रभाव था । इस मंदिर निर्माण में १. जैन स्थापत्य एवं कला, पृ० ३६२ । २. प्रासाद मंडन, पृ० २१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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