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________________ ३२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म चारों दिशाओं में दरवाजे एवं मध्य गर्भगृह में चतुर्मुख प्रतिमा इस प्रकार स्थापित की जाती थी कि हर दरवाजे से उसके दर्शन किये जा सकें। इस प्रकार का एक चतुर्मुख मंदिर कुम्भकर्ण के शासनकाल में रणकपुर में १४४० ई० में पोरवाल श्रेष्ठी धरणा के द्वारा निर्मित करवाया गया। इसमें मध्य में आदिनाथ की चतुर्मुखी प्रतिमा है, चारों कोनों पर चार उप मंदिर हैं, कुल २४ मण्डप और ४४ शिखर हैं। पाँच मन्दिर कक्षों पर पाँच गुम्बद हैं, प्रत्येक स्तम्भ तक्षण कला में दूसरे से मेल नहीं खाता । खम्भों को प्रत्येक दिशा में सुरुचिपूर्ण क्रम से लगाया गया है। शिखरों के साथ गोलाकार गुम्बद सुन्दर दिखाई देते हैं एवं मध्यकाल की मिश्रित वास्तु शैली के भी परिचायक हैं, जिसके अन्तर्गत मेहराबों और गुम्बदों का प्रयोग भी होने लग गया था। इस मंदिर में मूल्यवान पत्थरों द्वारा जड़ाव का काम करने का भी सबसे पहले प्रयत्न किया गया है। कुम्भलगढ़ में भी इस प्रकार का एक जैन मन्दिर है, जो पूर्वाभिमुख है । इसमें गर्भगृह व एक सभा मण्डप है, जिसमें तीन दिशाओं से पहुँचा जा सकता है। गर्भगृह के चार द्वार हैं एवं इसके केन्द्र के चारों तरफ चार स्तम्भों के अवशेष हैं, जिसके ऊपर चंदवा बँधा हुआ है। वेदो पर चतुर्मुख प्रतिमा नहीं है, किन्तु चतुर्मुख मंदिर होने में कोई संशय नहीं है । चित्तौड़ का 'शृंगार चंवरी" मंदिर मूलरूप से चतुर्मुख मन्दिर ही था। इसके पूर्व और दक्षिण के द्वार हटा दिये गये हैं एवं मूल स्वरूप को विकृत कर दिया गया है।" आबू में १५वीं शताब्दी में ही आदिनाथ का एक तिमंजिला, चारों तरफ से खुले बरामदे वाला चौमुख मंदिर निर्मित हुआ, जिसमें गुम्बद, धत व स्तम्भ हैं । ऐसा ही एक मंदिर १५७७ ई० में सूरतसिंह के पुत्र राजसिंह के शासन में सिरोही में बनवाया गया। कमलगढ़ में गोलेरा मंदिर का नामकरण इसके वलयाकार क्षेत्र में घिरे हुये होने के कारण हुआ। यह एक पूर्वाभिमुख समवसरण मन्दिर था। यह तथ्य दीवारों के कोनों में उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों के विभिन्न वर्गों को देखने से स्पष्ट होता है । चित्तौड़ दुर्ग में स्थित जैन कीर्ति स्तम्भ ७५ फीट ऊँचा, ८ मंजिल वाला है । इसमें सबसे ऊपर एक गंध कुटी है, जहाँ पहले चतुर्मुख प्रतिमा रही होगी। १. आसइएरि, १९०७-०८, पृ० २०५-१३ । २. विस्तार के लिए देखें अध्याय चतुर्थ । ३. मध्यकालीन भारतीय कलाएँ, पृ० ७८ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ४० । ५. वही, १९०३-०४, पृ० ४२ । ६. हिस्ट्री ऑफ इंडियन ऐण्ड ईस्टर्न आकि०, पृ० ४३ । ७. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ४७। ८. वही, १९०८-०९, पृ० ४०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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