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३१८ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधर्म
पुनरुद्धार प्रारम्भ वास्तुकला पर बड़े
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प्रमाण नहीं मिलते । १५वीं शताब्दी से जैन स्थापत्य शैली का हुआ । १५वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में महाराणा कुम्भा के संरक्षण में बड़े ग्रन्थ लिखे गये । उनके स्थपति आचार्य मण्डन ने वास्तु और शिल्प पर उनके ही संरक्षण में "देवता मूर्ति प्रकरण", "प्रासाद मण्डन'", 'राजवल्लभ रूप मण्डन", "" वास्तु मण्डन", " वास्तु सार" और " रूपावतार" ग्रन्थ लिखे । मण्डन के पुत्र गोविन्द -ने "उद्धारधारिणी", "कला निधि", "द्वार-दीपिका" नामक ग्रन्थ लिखे । मण्डन के भाई नाथ ने 'वास्तु मंजरी" की रचना की । कुम्भा ने विजय स्तम्भ के विषय पर - अपने एक स्थपति से एक ग्रन्थ लिखवाया और इसे पाषाण फलकों पर खुदवाया เจ महत्वपूर्ण बात यह है कि मध्यकाल में, चाहे वह मुगलों का स्वर्ण युग ही क्यों न हो, मुस्लिम वास्तुकला पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया और स्पष्ट हो सम्पूर्ण स्थापत्य भारतीय सिद्धान्तों पर होता रहा । मुस्लिम स्थापत्य के प्रतिमानों पर भी भारतीय कारीगरों ने ही काम किया और उनकी रचना भारतीय वास्तु शास्त्रों के आधार पर हुई । सदैव भारतीय तालमान ध्यान में रखे गये । विदेशी प्रेरणाओं को इन शिल्पकारों ' ने अपनी शैली में घोल-मेल लिया और वास्तु कला को एक नया रूप ही नहीं, अपितु नया जीवन भी दिया। भारतीय संस्कृति की अनवरत धारा में मध्यकाल का यही - महत्त्वपूर्ण योगदान है । २ खम्भों, स्तम्भों वाले मेहराब तो बने ही सही, किन्तु उनमें तोड़ों पर आधारित उदम्बर लगाये गये । मन्दिरों में शिखरों का आकार गुम्बद - नुमा होने लग गया । छत्रियों का व्यापक प्रयोग शुरू हो गया । जैन मन्दिरों पर भी इस मुगल मिश्रित स्थापत्य शैली का कुछ प्रभाव हुआ, जो फूले हुये गुम्बद, खुले क्षेत्र की मेहराबों और अलंकरण के प्रतीकों में देखने को मिलता है । इस काल के अधिकांश जैन मन्दिर आबू व सांगानेर के मन्दिरों की नकलें हैं, किन्तु इन अनुकृतियों में से पूर्ववर्ती मन्दिरों की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ पवित्रता, मनोरमता आदि में ह्रास हो गया । उन मन्दिरों की तुलना में इनमें वह भव्यता, निर्माण योजना की कुशलता और वर्णनों को समृद्धि देखने को नहीं मिलती है । जैनों द्वारा कराये गये स्थापत्य निर्माणों की दृष्टि से १५वीं शताब्दी पश्चिमी भारत के लिये विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होती है । इस काल में इस क्षेत्र के उस मध्यकालीन स्थापत्य को सुस्थिर किया गया जिसे जेम्स फर्ग्यूसन ने “ मध्य शैली" कहा है। इस मध्य शैली की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति इस युग के वास्तुविदों द्वारा तीर्थंकरों के लिये निर्मित एक अनूठे प्रकार के मन्दिर में देखी जा सकती है । यह शैली नागर शैली, सोलंकी एवं बघेल शैली
१. उदयपुर संग्रहालय में ।
२. रामनाथ - मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास, पृ० ७८ । ३. जैन स्थापत्य एवं कला, पृ० ३६१ ।
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