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३८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
७. विनयसागरोपाध्याय - ये पिप्पलक शाखा से सम्बन्धित थे । इनकी मुख्य रचनाएँ - " अविदपद शतार्थी", " नलवर्णन महाकाव्य " ( अप्राप्त), "प्रश्नप्रबोध काव्यालंकार स्वोपज्ञ टीका सह" १६१० ई०, " राक्षस काव्य टीका", "राघवपांडवीय काव्य टीका", "विदग्ध मुखमंडन टीका " १६१२ ई० हैं ।'
८. उदयसागर -- ये भी पिप्पलक शाखा के मुनि थे । इन्होंने १७वीं शताब्दी में " वाग्भटालंकार टीका" की रचना की । २
९. भट्टारक श्रीभूषण -- ये भट्टारक भानुकोति के शिष्य थे । ये १६४८ ई० में नागौर गादी के भट्टारक हुए। इनकी संस्कृत रचनाएँ -- " अनन्तचतुर्दशी पूजा”, "अनन्तनाथ पूजा", " भक्तामर पूजाविधान", "श्रुतस्कंध पूजा" व "सप्तर्षि पूजा" हैं । "
१०. भट्टारक धर्मचंद्र – ये नागौर गादी पर १६५५ ई० में भट्टारक बने । १६६० ई० में मारोठ में इन्होंने " गौतमस्वामीचरित" की रचना की । इसके अलावा इनकी "नेमिनाथ विनती", "संबोध पंचासिका " एवं "सहस्त्रनाम पूजा" आदि कृतियाँ भी मिलती हैं ।"
११. ब्रह्म कामराज -- इन्होंने १६३४ ई० में मेवाड़ में " जयपुराण" की रचना की ।"
१२. पं० जगन्नाथ - - ये तक्षकगढ़ ( टोडारायसिंह ) के निवासी और भट्टारक नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । इनकी अब तक ६ रचनाएँ उपलब्ध हैं -- "चतुर्विंशति संघान स्वोपज्ञ टीका", "सुखनिधान", "सुषैणचरित्र", "नमिनरेन्द्र स्तोत्र", "कर्मस्वरूप वर्णन" आदि । इनकी एक अन्य रचना " शृङ्गार समुद्र" भी थी, जो उपलब्ध नहीं है ।
१३. वादिराज - ये पं० जगन्नाथ के भाई व संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे । ये तक्षक नगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे । इनकी कृतियाँ उपलब्ध हैं - " वाग्भटालंकार” की " कविचंद्रिका" नामक टीका, "ज्ञान लोचन स्तोत्र" व "सुलोचना चरित्र" । प्रथम कृति १६७२ ई० में निबद्ध की गई । 9
१. राजैसा, पृ० ७३ ।
२ . वही ।
३. वही, पृ० ११२ । ४. वही,
५. वही, पृ० ११४ ।
६. जैग्रप्रस, पृ० ३८ । ७. राजैसा, पृ० ११४ ।
पृ० ११२-११३ ।
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