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________________ १६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लिये भी उल्लेखनीय हैं । राजस्थान के जैन तीर्थों को उपेक्षित करके इस प्रदेश के सांस्कृतिक इतिहास का सृजन नहीं किया जा सकता है । (अ) पूर्व मध्यकाल : १. आबू तीर्थ : सिरोही जिले के दक्षिणी भाग में, मरूथरा की दक्षिणी-पश्चिमी गोद में स्थित आबू एक पर्वतीय स्थल है, जो राजस्थान के रीढ़ स्तम्भ अरावली पर्वत की सिरमौर शाखा है: एवं गुरू शिखर ( ५६५३ " ) इसकी सबसे ऊँची चोटी है । ३० कि० मी० लम्बे व १२ कि० मी० चौड़े इस पर्वत के नाम पर, इस स्थान पर कालक्रम में एक बस्ती का आविर्भाव हुआ । द्वितीय शताब्दी पूर्व के साँची के अभिलेख में वर्णित "अबोद' सम्भवतः आबू ही था । पूर्व मध्यकाल से ही यह स्थान " देलवाड़ा" कहा जाने लगा | माउन्ट आबू की विशेष ख्याति देलवाड़ा के जैन मन्दिरों से है, जो यहाँ के बस स्टॉप से लगभग डेढ़ मील दूर है। कर्नल टॉड के अनुसार देलवाड़ा " देवलवाड़ा” का संक्षिप्त रूप है, जिसका अर्थ है "देवालयों" का स्थान; इसीलिये यहाँ के विश्वविश्रुत मन्दिरों के समूह को यह नाम दिया गया । यहाँ के मन्दिरों के समूह में ५ मन्दिर हैं, तथा कुछ दूरी पर स्थित अचलगढ़ में ४ मन्दिर हैं । आबू राजस्थान के इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व का त्रिवेणी संगम है । यहाँ के मन्दिर अपनी तक्षण कला, धातु प्रतिमाओं, वास्तु कला तथा शिलालेखों की विशिष्टता के कारण महत्वपूर्ण हैं | "दीपार्णव'", शिल्पार्णव", शिल्परत्नाकर ", " प्रासाद मंडन " आदि शिल्प शास्त्र के प्रचलित ग्रन्थ इन मन्दिरों को आदर्श नमूने मानते हैं । आबू १०३२ ई० से पूर्व ही जैन तीर्थ था । आर्यभद्र बाहुस्वामी विरचित "बृहत् कल्पसूत्र” में इसका तीर्थं स्थान के रूप में उल्लेख है । "विविध तीर्थं माला " ( इसमें उल्लेख है कि महावीर के १० वें पट्टधर " आर्य सुस्थित" आबू की तीर्थयात्रा के लिये गये थे ।) एवं " उपदेश सप्ततिका" (इसमें उल्लेख है कि पहली शताब्दी ईस्वी में पादलिप्तसूरि नित्यप्रति आकाश गामिनी विद्या के द्वारा आबू सहित पाँच तीर्थ स्थानों की यात्रा करके दर्शन प्राप्त करते थे ।) में भी यह तीर्थ क्षेत्र के रूप में वर्णित है । १३६९ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर अर्बुद भूमि पर पधारे थे। ऐसा विश्वास है कि बड़गच्छ के संस्थापक उद्योतनसूरि ९३७ ई० में १. एसिटारा, पृ० ४४९ । २. द मोन्यूमेंट ऑफ साँची, भाग १, पृ० ३०० ॥ ३. टॉड — ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया, पृ० १०६ ( हिन्दी अनुवाद) | ४. एसिटारा, पृ० ४५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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